भारतीय दार्शनिक दिवस पर पर आयोजित समारोह में स्थाई शांति पर विचार
शरद जैन सुधांशु/लाडनूँ। राजीव गांधी राष्ट्रीय युवा विकास संस्थान (आरजीएनवाईडी) चंडीगढ के लोक प्रशासन विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. इन्द्रजीत सिंह सोढी ने कहा है कि शांति को केवल युद्ध की रोकथाम के रूप में ही नहीं होती है, बल्कि शांति उससे आगे होती है और वह है मन की शांति, तनाव मुक्त जीवन। हम जितना ज्यादा फैलाव देश की सीमाओं का या आर्थिक क्षेत्र में करते हैं, उतनी ही शांति को भंग करते हैं। वे यहां जैन विश्वभारती संस्थान के महाप्रज्ञ ऑडिटोरियम में भारतीय दार्शनिक दिवस समारोह में मुख्य वक्ता के रूप में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि भारत ज्ञान का केन्द्र रहा है। यहां तक्षशिला, नालन्दा जैसे विश्वविद्यालय रहे हैं, जिनसे दुनिया भर के विद्धानों ने ज्ञान प्राप्त किया। भारत में ज्ञान की पुस्तकें बहुत थी, जो संस्कृत आदि भाषाओं में थी और उनका अनुवाद अनेक अन्य भाषाओं में किया गया। कोरोना ने परे विश्व की शांति को हिला दिया था, अमेरिका जैसे स्वास्थ्य का नारा देने वाले देश विफल हो गए, लेकिन भारत ने अपनी सार्थकता को सिद्ध किया। विशाल जनसंख्या में बावजूद भारत ने सबको पीछे छोड़ा, यह हमारे ज्ञान के कारण ही है। यहां संस्थान के अहिंसा एवं शांति विभाग के तत्वावधान में इंडियन कौंसिल आफ फिलाॅसोफिकल रिसर्च (आईसीपीआर) के सहयोग से ‘स्थायी शांति के लिए दार्शनिक साधनों की तलाश’ विषय पर आयोजित इस कार्यक्रम में उन्होंने बताया कि कोरोना से कुछ देशों को मिल कर चलने का संदेश दिया, जो अब तक उनके समझ में नहीं आ रहा था।
प्रकृति से छेड़छाड़ से होती है शांति भंग
प्रो. सोढी ने टेक्नोलोजी, साईबर क्राईम, पर्यावरण आदि की स्थितियों को लेकर शांति की अवस्था और विश्व शांति दिवस के उद्देश्यों के बारे में बताते हुए कहा कि पर्यावरण संतुलन और शांति एक दूसरे के पूरक हैं। जलजला या भूकम्प आने का कारण प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का नतीजा है। इससे जन समुदाय की शांति भंग होती है। हम प्रकृति की शांति को भंग करते हैं, तो प्रकृति उसका परिणाम भी हमें देती है। उन्होंने सहयोग और समन्वय को परिभाषित करते हुए कहा कि शांति के लिए समन्वय जरूरी है, केवल सहयोग नहीं। भारतीय ऋषियों ने समन्वय पर जोर दिया था, लेकिन हम सहयोग कर देते हैं, पर समन्वय नहीं कर पाते। शांति के लिए अनुशासन भी जरूरी है। केवल अपने हिसाब से जीना कभी शांति नहीं ला सकता। धर्म का मतलब शांति से रहना, सहयोग से रहना और परस्पर सामंजस्य से रहना होता है। लेकिन, आज लोग धर्म के लिए लड़ते हैं, जो गलत है। दर्शन विवेकपूर्वक व ज्ञान पूर्वक बात बताने को कहते हैं। दर्शन से समझा और समझाया जा सकता है। भारत ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा वाला देश है और सह अस्तित्व ही शांति का प्रेरक होता है।
आखिर शांति की पहचान क्या है
मुख्य अतिथि के रूप में इंडियन कौंसिल आॅफ फिलोसोफिकल रिसर्च (आईसीपीआर) के पूर्व सचिव एवं सुखाड़िया विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. एसआर व्यास ने अपने सम्बोधन में कहा कि जब सभी लोग शांति की बात करते हैं, फिर भी शांति नहीं आती, तो सोचने की बात है कि आखिर शांति क्या है। सभी देश, सभी धर्म, संत-महात्मा, अनुयायी, संगठन आदि सब शांति के लिए प्रयास करते हैं, लेकिन हम शांति को पहचानते ही नहीं और जिसे हम पहचान नहीं पाते उसकी तलाश मुश्किल होती है। शांति के लिए ही सारी अशांति फैली हुई है। उन्होंने सार्वजनिक शांति या सामुहिक शांति को कोरी कल्पना बताई और कहा कि शांति केवल वैयक्तिक ही हो सकती है। शांति को कहीं बाहर से नहीं खरीदा जा सकता। शांति हमेशा अंदर से होती है। शांति रचनात्मक होती है। उसका निर्माण जितने समय तक और जितने प्रतिशत तक हम कर पाते हैं, उतना ही गुस्सा, ईष्र्या, लालच आदि नियंत्रण में रहते हैं। उन्होंने कहा कि साधु-संत आदि शांति नहीं दे सकते, वे केवल प्रेरक होते हैं। हम दूसरों को प्रेरक मान सकते हैं, लेकिन प्रयत्न हमें खुद को ही करने होंगे।
आत्मनिर्भरता से शांति नहीं मिल सकती
जैविभा विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर दूगड़ न कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि अधिकतम युद्ध धर्म के नाम पर लड़े गए, लेकिन शांति का मार्ग भी धर्म ही दिखाता है। यह देखने वाले पर निर्भर करता है कि वह कोैन सा मार्ग देखता है। उन्होंने बताया कि आत्मनिर्भरता या स्वावलम्बन से शांति खंडित हो रही है। इसलिए अन्तर्निर्भर बनना जरूरी हो गया है। हमें एक-दूसरे के प्रति सहयोग की भावना को बढाना होगा। परस्पर सहयोग बढाने से शांति कायम हो सकती है। उन्होंने अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण को भी जरूरी बताया और कहा कि हमारी इच्छाएं जितनी कम होंगी, उतने ही परिमाण में शांति बढती जाएगी। कार्यक्रम का प्रारम्भ मुमुक्षु बहिनों द्वारा मंगलगान करके किया गया। अहिंसा एवं शांति विभाग के विभागाध्यक्ष डा. रविन्द्र सिंह राठौड़ ने स्वागत वक्तव्य प्रस्तुत किया। कार्यक्रम का संचालन एवं विषय प्रवर्तन प्रारम्भ में संयोजक डा. लिपि जैन ने किया। अंत में आभार ज्ञापन डा. बलवीर सिंह ने किया। कार्यक्रम में प्रो. नलिन के. शास्त्री, प्रो. बीएल जैन, प्रो. जिनेंद्र जैन, विनीत सुराणा, प्रो. आनन्द त्रिपाठी, आरके जैन, डा. प्रद्युम्नसिंह शेखावत, प्रो. रेखा तिवाड़ी, डा. अमिता जैन, डा. मनीष भटनागर, डा. प्रगति भटनागर, डा. गिरधारीलाल शर्मा, दीपाराम खोजा, पंकज भटनागर, डा. सरोज राय, डा. आभा सिंह, समस्त संकाय सदस्य, ममुक्षु बहिनें, विद्यार्थी आदि उपस्थित थे।