Saturday, September 21, 2024

“सासो की वैरायटी करे कमाल”

दुनियाँ भर की रहस्यमयी पहेलियों में से एक पहेली सास भी है। किस्म-किस्म की सासें अपने अपने स्वभाव की मालकिन है। इनसे पार पाना भी मुश्किल है सीधी-सादी बहुओं के लिए।
विविधता से परिपूर्ण हमारे देश में तरह-तरह के अजूबे पाए जाते हैं। हमारी हर बात निराली होती है। लेकिन हमारे देश की संस्कृति में एक अजूबा चरित्र ऐसा भी है, जो भारत की विविधताओं में एकता का गुरुत्व भार अपने कंधों पर सदियों से ढोता आ रहा है। इस अद्भुत चरित्र का नाम है सास।
हम अन्य भाषाओं में पति की माँ कह सकते हैं। यह चरित्र सरल भी है और जटिल भी जलेबी की तरह सीधी भी है, तो करेले की तरह मीठी भी है, यह नमक की तरह खारी भी है। यदि दुनियाँ विभिन्न पहेलियों की बात की जाए तो सास की पहेली सबसे ज्यादा जटिल आती है। बीजगणित के जटिल समीकरण आसानी से हल हो सकते हैं, लेकिन सास बहू के समीकरण को समझना और हल करना हम जैसे तुच्छ प्राणी के बस की बात नहीं है। सास बहू का विवाद हर गृहस्थी को सामना करना पड़ता है।
सास शब्द निश्चय ही श्वास से जुड़ा होगा। हमारी अनुसार सास की सरल परिभाषा यह हो सकती है कि सास वह होती है जो सांसो को नियंत्रित करने का जिम्मा उठाती है। सास बहू के संबंध गृहस्थी की नींव हैं।
उपयोगिता की दृष्टि से सकारात्मक सोच वाली सासें अपनी बहू के लिए एक आदर्श और मजबूत संबल होती है, तो नकारात्मक भूमिका वाली सासें गृहस्थी का बंटाधार करने के लिए जगतप्रसिद्ध है। सासें चाहे तो घर की बागडोर को अच्छी तरह हैंडल कर सकती है तथा नई नवेली बहू के लिए आदर्श शिक्षिका ही साबित हो सकती है, जिसमें सारे परिवार का उद्धार निहित है।
प्रथम श्रेणी की सासों की बात अगर करें तो ये ‘बड़बड़’ करने वाली होती है। इस श्रेणी की सासों को ‘बकबक सासें’ कहा जाता है। उनका पहला और आखरी काम होता है बहुओं के क्रियाकलापों पर टिप्पणी करना। ऐसी सासें जब चाहे तब तिल का पहाड़ बनाकर विस्फोट करा देती है। उनका खून गर्म होता है। बहुओं की छोटी से छोटी बात पर भी पैनी नजर रखना उनकी सामान्य आदत होती है। मीनमेख निकालने की कला में वे दक्ष होती है। संभवतः इसी क्रिया द्वारा उनका भोजन पचता है। ऐसी सासें बहू के दोषों का बखान करने में कभी नहीं थकती। उनकी अपनी बहुओं से हमेशा तनातनी चलती रहती है।
द्वितीय श्रेणी की सासों को हम ‘सौम्य सासें’ कहते हैं। ये गऊछाप होती है। इनकी प्रकृति बहू पर दोष मढ़ने की नहीं होती है, बल्कि उन्हें प्यार से समझा कर उनकी गलतियों को सुधारने वाली होती है। ऐसी सांसों का अकाल पड़ा होता है। यदि इन सासों का पाला तेजतर्रार बहू से पड़ जाए तो दहेज के झूठे इल्जाम में हवालात की गौशाला में भी वह बँधी नजर आ सकती हैं।
तृतीय श्रेणी की सासें ‘पहलवान टाइप’ रहती हैं। वह अपने बाहुबल के प्रदर्शन का अवसर कभी नहीं छोड़ती है, मौका मिलते ही थप्पड़ जड़ना उनका सबसे पसंदीदा काम होता है, लेकिन वरीयता क्रम में पिछड़ी इन सासों की लोकप्रियता आधुनिक युग में बड़ी तेजी के साथ घटती जा रही है। वर्तमान कानून और प्रतिबंध उनकी वंशवृद्धि में बड़ी रुकावट पैदा कर रहे हैं। एक जमाना था जब ऐसी सासों ने बॉलीवुड की फिल्मों में धाक जमाई हुई थी। ललिता पवार को ऐसी सास के अभिनय ने ही लोकप्रियता की बुलंदियों पर पहुंचा दिया था। ऐसी सासों से बहू बेटे ही नहीं बल्कि पूरा मोहल्ला डरा करता था। लेकिन अब ऐसी रौबदार बाली सासों के दिन लद गए हैं।
चतुर्थ श्रेणी में ‘चुगलबाज सासों’ को रखा गया है। उनका प्रिय शौक चुगलबाजी करना होता है। यह सासें घर परिवार की बातें मीडिया की तरह जन साधारण तक पहुंचाने में कार्य करती हैं। उनकी रिपोर्टिंग के आगे इलेक्ट्रॉनिक अथवा प्रिंट मीडिया भी फेल साबित होती है। आज बहू कब सोकर उठी अथवा सब्जी में नमक ज्यादा था या कम जैसी महत्वपूर्ण खबरें हजारों मील दूर बैठे रिश्तेदारों को सहज ही पता चल जाती है।
पंचम श्रेणी ‘फरमाइशी सासों’ की है। कारण उनकी फरमाइशें कभी पूरी नहीं होती है। बहुओं से उनकी फरमाइशें हमेशा चलती रहती है। ऐसी सासें दहेज से कभी संतुष्ट नहीं दिखती। उन्हें पूंजीवादी सासें भी कहा जा सकता है, क्योंकि उनकी सारी चिंता पूंजी पर केंद्रित रहती है।
षष्ठी प्रकार की सासों को’ समाजवादी सासें’ कहना उचित होगा। उन्हें हमेशा समाज की चिंता सताती रहती है। उन्हें डर सताता रहता है कि पता नहीं बहू कब उनकी प्रतिष्ठा की नाक समाज में कटवा डाले। किसी ने देख लिया तो लोग क्या कहेंगे? जैसे जुमले उनके मुंह पर हमेशा चढ़े रहते हैं। ऐसी सासें हमेशा अपनी बहुओं के कृत्यों और उनके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन विश्लेषण करती प्रतीत होती है।
सप्तम श्रेणी की सासें ‘शिकायत प्रधान’ होती हैं। मुंह पर थप्पड़ की तरह अपनी शिकायतें दागती रहती है। ऐसी सासों को झेलने के लिए जरूरी है कि बहुएं अपने कानों को हमेशा दुरुस्त रखें। अथवा सास की बात को एक कान से सुने और दूसरे से निकाल दे।
अष्टम श्रेणी ‘भक्ति प्रधान’ सासों की है। उनका ज्यादातर समय बहू पुराण पर बतियाते हुए पूजा पाठ करने, माला जपने या भजनकीर्तन करने में व्यतीत होता है। उनके शरीर में कभी-कभी सास की ओरिजिनल फोरम भी अवतरित होती रहती है। बहू के कारनामों के टर्निंग प्वाइंट से भी वे मुक्त नहीं होती। माला घुमाते वे बहू को हुक्म देने के विस्फोटक बीज मंत्रों का उच्चारण भी करती है रहती है।
लेकिन यह तथ्य भी बेहद महत्वपूर्ण है कि वर्तमान समय में आधुनिकता के दौर में सासों की दशा बेहद खराब है। हम दो हमारे दो के फैशन में एकल परिवारों में सास-ससुर अवांछित सदस्य समझे जाने लगे है। अतीत के आक्रामक रूप से पिछड़ कर अब सास सुरक्षात्मक भूमिका तक सीमित हो गई हैं। अब जमाना ही कहाँ रहा जब सास की झिड़कियों को प्रसाद समझकर बहुएं उन पर अमल करती थी। सासों को सर्वत्र आदर सम्मान प्राप्त था। वर्तमान तो ‘जैसे को तैसा’ का युग है, इसलिए बदले जमाने में तो सासों का शास्त्रीय रूप दुर्लभ होता जा रहा है।
यह भी सत्य है कि सास-बहू की खटपट कभी खत्म नहीं होती। उनका कोल्ड वार जारी रहता है। बहू या जमाई राजा, उन्हें अपनी-अपनी सासूमां की अंतहीन शिकायतें सुननी ही पड़ती है। शीत युद्ध लड़ना उनकी विवशता होती है, वह चाहे मीठी हो या कड़वी। समाज का ताना-बाना ही ऐसा बुना गया है कि आम तौर पर उन्हें नाराज करने का रिस्क कोई नहीं लेता। फिलहाल सासों की शोचनीय हालत से लगता है कि उन्हें सरकारी संरक्षण की जरूरत पड़ने वाली है। ‘सेव टाइगर’ की तरह ‘सेव मदर इन लॉ’ की योजना सरकार को लॉन्च करनी पड़ेगी, क्योंकि यदि यही हाल रहा तो सासें धीरे-धीरे अपना मूल स्वरूप खोकर अतीत की धरोहर मात्र रह जाएगी।

पूजा गुप्ता
मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)

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