कुचामन सिटी। आचार्य श्री 108 विवेकसागर जी महाराज ने दिगंबर जैन नागौरी मंदिर कुचामन में विशाल धर्मसभा में लोभ को दुख का कारण बतलाते हुए कहा कि शरीर व मन के समस्त रोग लोभ से पैदा होते हैं। लोभ की मात्रा घटती नहीं, मगर दिनों दिन घटने की बजाय निरंतर बढ़ती चली जाती है। प्रभु महावीर ने कहा ज्यों-ज्यों लाभ होता है त्यों-त्यों लोभ और अधिक मात्रा में बढ़ता चला जाता है। आज तक जितने भी युद्ध -मन मुटाव -हिसा -अत्याचार या अनाचार हुए हैं उसके पीछे एक ही कारण लोभ का रहा है। इंसान की इच्छाएं अनंत होती हैं जो कदापि पूर्ण नहीं हो पाती। इंसान खाली हाथ आता है एवं एक दिन खाली हाथ ही प्रस्थान कर जाता है। लोभ तन का, मन का, धन का, कुटुम्ब कबिला, जमीन जायदाद का या पद प्रतिष्ठा का नानाभांति जीवन में प्रगट होता रहता है। मन में हजारों कल्पनाएं उभरती रहती है। प्रभु महावीर ने इस लोभ को जीतने के लिए संतोष का मार्ग बतलाया जैन श्रावकों के लिए परिग्रह परिणाम व्रत की व्याख्या की। वस्तुओं की मर्यादाओं से ही मन पर काबू पाया जा सकता है। राजा महाराजाओं के युद्ध इसी लोभ के चलते हुए हैं। खाने को कहा जाता है तो दो रोटी की जरूरत पड़ती है। फिर पता नहीं इंसान इतना लोभ में क्यों डूबा जा रहा है। कृपण व्यक्ति के पास लक्ष्मी आ भी जाए फिर भी वह इसका उपयोग नहीं कर पाता। कहावत है कीड़ी संचे तीतर खाये अर्थात संचय तो किड़िया करती जाती है खाने वाला कोई अन्य ही होता है। लोभ को पाप का बाप भी कहा जाता है। सारे पाप इसी के इर्द गिर्द घूमते रहते है। इसलिए बंधुओं हमें लोभ से बचना चाहिए, क्योंकि लोभी जीव कहीं का न होता,किसी का नहीं होता। इसलिए अपने जीवन में हमें लोभ को त्याग देना चाहिए,जितना है उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। तभी हम अपने जीवन को सुखी और निरोग बना सकते हैं।