श्रुत पंचमी जैन संस्कृति, जैन दर्शन, जैन धर्म का प्रमुख त्योहार है जैन धर्म के अनुसार इस दिन प्रथम बार जैन धर्म यानि आगम के किसी भी ग्रंथ को लिपिबद्ध किया गया। लगभग 2000 से भी ज्यादा वर्ष पूर्व गुजरात के गिरनार पर्वत की गुफाओं में आगम के प्रथम ग्रंथ षटखंडागम की रचना संपूर्ण हुई थी। जैन आचार्य, जैन विद्वान महानुभावों के अनुसार श्रुत पंचमी पर्व ज्ञान की आराधना का पर्व है। प्रतिवर्ष जेष्ठ शुक्ला पंचमी को जैन समाज में श्रुत पंचमी पर्व मनाया जाता है इस पर्व को मनाने के पीछे एक बड़ा इतिहास है आइए हम सब आज यह जानने का प्रयत्न करें श्रुत पंचमी क्या है। श्री वर्धमान जिनेंद्र स्वामी के मुख से उद्घाटित हुई वाणी को गौतम गणधर ने श्रुत के रूप में धारण किया, उनसे सुधर्माचार्य स्वामी ने और उनसे अंतिम श्रुत केवली जंबू स्वामी ने ग्रहण किया। वर्धमान स्वामी के निर्वाण होने के पश्चात इनका काल ६२ वर्ष माना गया है। पश्चात १०० वर्ष में श्री विष्णु स्वामी, श्री नंद मित्र स्वामी, श्री अपराजित स्वामी श्री गोवर्धन स्वामी श्री भद्रबाहु स्वामी ये ५ आचार्य पूर्ण द्वादशांग के ज्ञाता श्रुत केवली भगवंत हुए। पश्चात ११ अंग और १० पूर्वों के वेत्ता ये ११ आचार्य भगवंत हुए श्री विशाखा चार्य स्वामी, श्री प्रोष्ठिल स्वामी, श्री क्षत्रिय स्वामी, श्री जय स्वामी, श्री नाग स्वामी, श्री सिद्धार्थ स्वामी। श्री जगदीश स्वामी, श्री विजय स्वामी, श्री बुद्धिल स्वामी, श्रीगंगदेव स्वामी और श्री धर्म सैन स्वामी। इनका काल लगभग १८३ वर्ष रहा तत्पश्चात श्री नक्षत्र स्वामी श्री जयपाल स्वामी श्री पांडू स्वामी श्री ध्रुव सेन स्वामी और श्री कंस स्वामी यह पांच आचार्य ११ अंगों के धारक हुए। इनका काल २२० वर्ष माना गया है। पश्चात श्री सुभद्र स्वामी श्री यशो भद्र स्वामी श्री यशोबाहू स्वामी, और लोहार्य स्वामी यह चार आचार्य मात्र आचारांग के धारक हुए । इनका समय ११८वर्ष माना गया है । इसके पश्चात अंग और पूर्व वेत्ताओं की परंपरा समाप्त हो गई और सभी अंगों और पूर्वों के एक देश का ज्ञान आचार्य परंपरा से श्रीधरसेन स्वामी भगवंत को प्राप्त हुआ । यह दूसरे अग्रायणी पूर्व के अंतर्गत चौथे महा कर्म प्रकृति प्राभृत के विशिष्ट ज्ञाता थे।
इस अनुसार काल की गणना हम करते है तो वर्धमान स्वामी के निर्वाण के ६८३ वर्ष व्यतीत होने पर आचार्य धर सेन स्वामी भगवन्त हुये। आचार्य श्री धरसेन स्वामी अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे। आचार्य श्री धरसेन काठियावाड़ में स्थित गिरी नगर (गिरनार पर्वत )की चंद्र गुफा में रहते थे। समय बीत रहा था वे वृद्ध हो चले थे और उन्होंने जब यह जान लिया कि अब मेरा जीवन अत्यंत अल्प रह गया है ।तब उन्हें अत्यधिक चिंता हुई की अवसर्पिणी काल के प्रभाव से श्रुत ज्ञान का दिन प्रतिदिन ह्रास होता जा रहा है जो कुछ भी श्रुत मुझे प्राप्त है, उतना भी आज किसी को नहीं है। अगर मैं यह श्रुत किसी अन्य को नहीं दे सका तो, यह मेरे साथ यहीं समाप्त हो जाएगा । उस समय देशेन्द्र नामक देश में वेणाकतटीपुर में महा महिमा के अवसर पर विशाल मुनि समुदाय विराजमान था।
श्रीधर सेन आचार्य भगवंत ने एक ब्रह्मचारी जी के हाथ वहां आचार्य श्रीअरहद बलि के पास एक पत्र भिजवाया
स्वस्ति श्रीमान ऊर्जयन्ततट के निकट स्थित चंद्र गुहा वास से धरसेन आचार्य वेणाक तट पर स्थित मुनि समूहों को वंदना करके इस प्रकार से कार्य को कहते हैं कि हमारी आयु अब अल्प ही रह गई है इसलिए हमारे श्रुत ज्ञान अनुरूप शास्त्र का लोप ना हो जाए। तो आपसे विनती है की तीक्ष्ण बुद्धि वाले श्रुत को ग्रहण और धारण करने में समर्थ दो यतीश्वरों को मेरे पास भेजो। तब अभिप्राय को जानकर आचार्य श्रीअरहद बली ने अपने दो योग्य शिष्यों को गिरनार पर्वत पर भेजा उनके नाम नर वाहन और सुबुद्धी थे । यह मुनी विद्या ग्रहण करने में तथा इसे स्मरण रखने में समर्थ थे । जब यह दोनों मुनि गिरनार पर्वत की ओर आ रहे थे तब धरसेन आचार्य भगवंत ने एक शुभ स्वप्न देखा था। की दो श्वेत वृषभ आकर उन्हें विनय पूर्वक वंदन कर रहे हैं । उन्होंने स्वप्न में ही यह जान लिया कि आने वाले दोनों मुनिराज विनय वान हैं तथा धर्म धुरा को वहन करने में समर्थ है। उनके श्रीमुख से जयउसूयदेवदा ऐसे आशीर्वाद के वचन निकले । जब दोनों मुनिवर गिरी पर्वत पर आ पहुंचे और विनय पूर्वक उन्होंने आचार्य के चरणो में वंदना की दो दिन पश्चात श्री धर सेन आचार्य भगवंत ने उनकी परीक्षा की ।एक मुनि को अधिक अक्षरों वाला और दूसरे मुनि को हीन अक्षरों वाला मंत्र दे कर दो उपवास सहित उसे साधने को कहा। दोनों मुनि गुरु के द्वारा दी गई विद्या को लेकर उनकी आज्ञा से श्री नेमिनाथ तीर्थंकर स्वामी की सिद्ध भूमि पर जाकर नियम पूर्वक अपनी-अपनी विद्या की साधना करने लगे। वहां उनके सामने दो देवियां आई उनमें से एक देवी की एक ही आंख थी और दूसरी देवी के दांत बड़े बड़े थे । तब मुनियों ने समझ लिया की मंत्रों में कुछ त्रुटि है ।तब व्याकरण की दृष्टि से उन्होंने मंत्र पर विचार किया तो जिसके सामने एक आंख वाली देवी आई थी उसमें एक वर्ण कम पाया गया । तथा जिनके सामने लंबे दांतों वाली देवी आई थी उन्होंने अपने मंत्र में एक वर्ण अधिक पाया । दोनों ने अपने-अपने मंत्रों को शुद्ध किया और पुनः अनुष्ठान किया । इसके फलस्वरूप देवियां प्रकट हुई और बोली हमें आज्ञा दीजिए देव –हम आपका क्या कार्य करें। तब उन्होंने कहा हमारा कोई कार्य नहीं है हमने तो केवल गुरुदेव की आज्ञा से मंत्र आराधना की है सुनकर देवियां अपने अपने स्थान को चली गई।
तब आचार्य श्री ने उन्हें श्रुत का ज्ञान दिया, जो आषाढ़ मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को पूर्ण हुआ। उस ही दिन भूत जनो ने रात्रि को नरवाहन मुनि की बलिविधि (पूजा) की और सुबुद्धी मुनि के चार दांतों को सुन्दर बना दिया, तब से इन मुनियों के नाम भूतबलि पुष्पदन्त प्रसिद्ध हुए। पश्चात श्री धरसेन आचार्य भगवंत ने विचार करते हुए कि मेरी मृत्यु अब सन्निकट है। और इन दोनों को संक्लेश न हो यह सोच कर वचनों द्वारा योग्य उपदेश देकर दूसरे ही दिन उन्हें वहां से बिहार करा दिया। यद्यपि दोनों साधु गुरु चरणों में रहना चाहते थे। परंतु गुरु के वचनों का उल्लंघन न हो इसलिए ऐसा विचार करके वे वहां से चल दिए और अंकलेश्वर पहुंच कर वर्षा योग धारण किया। वर्षा काल व्यतीत करने के पश्चात पुष्पदंत आचार्य भगवन्त तो अपने शिष्य जिन पालित के साथ वनवास को चले गए। और भूत बली द्रविड़ देश को चले गए।
आचार्य पुष्पदंत जिनपालित को पढ़ाने के लिए महा कर्म प्रकृति प्राभृत का छह खंडों में उप संहार करना चाहते थे अतः उन्होंने २० अधिकार गर्भित सत्प्ररुपणा सूत्रों को बनाकर शिष्यों को पढ़ाया और आचार्य भूतबलि के पास जिन पालित को ग्रंथ देकर भेज दिया। इस रचना को देखकर भूतबलि ने आचार्य पुष्पदंत के षट् खंडा गम रचना के अभिप्राय को जानकर,तथा उनकी आयु भी अल्प है, ऐसा समझकर भूत बलि ने द्रव्यप्ररुपणा आदि अधिकारों को बनाया और इस तरह से पूर्व के सूत्रों सहित ६००० श्लोक प्रमाण में इन्होंने ५ खंड बनाए और ३०००० प्रमाण सूत्रों सहित महाबंध नाम का छठा खंड बनाया इन छह खंडों के नाम हैं— जीव स्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्ध स्वामित्व, वेदना खण्ड, वर्गणा खण्ड और महाबन्ध।
भूतबलि आचार्य भगवंत ने षटखंडागम सूत्रों को पुस्तक बद्ध किया। और जेष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन चतुर्विध संघ सहित कृति कर्म पूर्वक महापूजा की । और इसी दिन से पंचमी का नाम श्रुत पंचमी प्रसिद्ध हो गया । इस पावन दिवस पर हम सभी लोग षटखंडागम ग्रंथ को विराजमान कर श्रद्धा भक्ति से महोत्सव के साथ रथ यात्रा निकालते हैं। महोत्सव के साथ पूजा अर्चना विधान किया जाता है और सिद्ध भक्ति का पाठ किया जाता है श्रुत यंत्र का परंपरागत रूप से अभिषेक किया जाता है। साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है, चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने षट्खंडागम जैसे महान ग्रंथ को ताम्रपट्ट पर उत्कीर्ण करा कर के सुरक्षित किया, क्योंकि आचार्यों को इस विषय पर अधिक चिंतन रहता है कि हम किस प्रकार से श्रुत ज्ञान को सुरक्षित करके आगे बढ़ा सकें, आगे दे सकें। श्रुत पंचमी पर्व का यही उद्देश्य है, कि हम किस प्रकार से दिगंबर जैन आगम को, श्रवण संस्कृति को जान सकें ,एवं उसका अधिक से अधिक प्रचार कर सकें, क्योंकि आज आधुनिक युग है, लोगों का शास्त्रों की ओर ध्यान कम रहता है, इसलिए जिस प्रकार से हो सके, शिविरों के माध्यम से बच्चों के अंदर जैन धर्म से प्र संबंधित संस्कारों को दे सकें यही श्रुत पंचमी पर्व का उद्देश्य है। जैन नगरी जयपुर में सन १९६७ में परम श्रद्धेय पंडित प्रवर श्री चैन सुख दास जी के सानिध्य में जैन साहित्य परिषद की स्थापना हुई,तब ही से जैन साहित्य परिषद नियमित जिनवाणी रथ यात्रा निकालती आ रही है। वर्तमान में जैन साहित्य परिषद के अध्यक्ष वाणी भूषण डा० विमल कुमार जी जैन साहब हैं और मंत्री श्री हीरा चन्द जी वैद हैं। नई कार्यकारिणी के संयोजन में इस बार श्रुत पंचमी समारोह का त्रि दिवसीय कार्यक्रम विशेष है।
–रमेश गंगवाल