छाणी परम्परा के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री 108 सूर्य सागर जी महाराज
परम पूज्य आचार्य श्री 108 सूर्य सागर जी महाराज का जन्म कार्तिक शुक्ल नवमी तदनुसार 9 नवम्बर 1883 को ग्राम प्रेमसर, जिला ग्वालियर (म.प्र.) में हुआ था। आपने आसोज शुक्ल षष्टी तदनुसार 4 अक्टूबर 1924 को इन्दौर (म.प्र.) में आचार्य श्री 108 शांतिसागर जी महाराज (छाणी) के कर-कमलों से ऐलक दीक्षा ग्रहण की तथा 51 दिन पश्चात ही मार्गशीष बदी एकादशी तदनुसार 23 नवम्बर 1924 को आप हाटपीपल्या, जिला देवास (म.प्र.) में मुनि दीक्षा अंगीकार कर आत्म-कल्याण के मार्ग पर आरुढ़ हुए. आप दिगम्बर जैन परम्परा के ऐसे प्रमुख साधुओं में से एक थे जिन्होंने साहित्य के माध्यम से जैन आगम को सुदृढ़ एवं स्थायित्व प्रदान करने में अपना महनीय योगदान दिया| कार्तिक शुक्ल नवमी तदनुसार 21 नवम्बर 1928 को आपको कोडरमा (झारखण्ड) में आचार्य पद पर सुशोभित किया गया.
इस परंपरा के पंचम पट्टाधीश परम पूज्य आचार्य श्री 108 विद्याभूषण सन्मति सागर जी महाराज के प्रमुख शिष्य परम पूज्य आचार्य श्री 108 अतिवीर जी मुनिराज ने पूज्य आचार्य-प्रवर के मुनि दीक्षा दिवस के अवसर पर उनके चरणों में अपनी विनयांजलि अर्पित करते हुए बताया कि आचार्य श्री 108 सूर्य सागर जी महाराज के जीवन में जहाँ स्वकल्याण एवं स्वात्मोत्थान की भावना थी वहीँ धर्म प्रभावना एवं समाज के उत्थान के विचार भी पनपते रहे. आप अपने श्रमणकाल में तीर्थंकर महावीर स्वामी की देशना को जन-जन में प्रचारित किया. आप एक सच्चे समाज सुधारक थे तथा आपने समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का साहसिक प्रयत्न किया.
आपकी विद्वता, चारित्र निर्मलता एवं संघ दक्षता को देखते हुए आचार्य श्री 108 शांतिसागर जी महाराज (छाणी) के समाधिमरण के पश्चात् आपको विधिवत पट्टाचार्य पद प्रदान किया गया. आचार्य श्री विवेकी साधु थे, वे निरंतर इस बात का ध्यान रखते थे कि किसी तरह उनके मूलगुणों में दोष न लगे. आप स्वयं ज्ञानाभ्यास में लीन रहते थे और अपने शिष्यों को भी स्वाध्याय करवाते थे. सन 1928 में आपने संघ सहित शाश्वत तीर्थ श्री सम्मेद शिखर जी की वंदना की| यहाँ आपका मंगल मिलन चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री 108 शांतिसागर जी महाराज (दक्षिण) व 50-60 साधुओं से हुआ. सैकड़ों वर्षों में यह पहला अवसर था जब इतनी संख्या में त्यागीवृन्द एक साथ श्री सम्मेद शिखर जी में विराजमान थे.
निर्भीक एवं स्वतंत्र विचारों के धनी आचार्य श्री 108 सूर्य सागर जी महाराज ने लगभग 35 ग्रथों का संकलन/प्रणयन किया. श्रमण एवं श्रावकों को कर्तव्यों का बोध करने वाला ‘संयमप्रकाश’ आपका अनुपम एवं विशालकाय ग्रन्थ है. पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी आपको अपना गुरु स्वीकारते थे. आचार्य श्री निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्ग पर पूर्णतया आरूढ़ रहे थे. आपने जिनागम को जैसा जाना-समझा उसे अपने व्यावहारिक जीवन में स्थान दिया. धार्मिक शिक्षा और सद्प्रवृत्तियों हेतु आप सदा प्रयत्नशील रहे. आपके सदुपदेश से अनेक स्थानों पर पाठशालाएं, विद्यालय, औषधालय खुले और समाज में व्याप्त कषाय भी समाप्त हुई.
सन 1952 में राजधानी दिल्ली से श्री सम्मेद शिखर जी की ओर मंगल विहार करते हुए आचार्य श्री ससंघ डालमिया नगर पहुंचे जहाँ उनका स्वास्थ्य अत्याधिक गिरने लगा. श्रावण कृष्णा नवमी तदनुसार 15 जुलाई 1952 को आचार्य श्री ने समाधिपूर्वक मरण कर इस नश्वर देह का त्याग किया. उस समय आचार्य श्री के निकट क्षुल्लक श्री पूर्णसागर जी आदि त्यागीवृन्द तथा साहू शांतिप्रसाद जी, सेठ तुलाराम जी, लाला राजकृष्ण जी, श्री हुलाश चंद्र सेठी जी आदि अनेकों व्यक्ति उपस्थित थे. पूज्य आचार्य श्री का जितना विशाल एवं अगाध व्यक्तित्व था, उनका कृतित्व उससे भी अधिक विशाल था. आचार्य श्री के कर-कमलों द्वारा अनेक भव्य जीवों ने जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर अपना जीवन धन्य किया.
संकलन – समीर जैन (दिल्ली)