नींव के पत्थर
कभी बोलते नहीं
अपने किए हुए
कर्मों को पाप पुण्य के
तराजू में तोलते नहीं
वो दबे रहते हैं
युगों युगों तक
भूतल में अविरल अनवरत
और सहते रहते हैं
दाब और संताप
उन अट्टहास करती
हुई इमारतों का
नींव के पत्थर
कभी बोलते नहीं
जिन सिद्धांतों से
नींव के पत्थर की
नींव रखी गई थी।
एक दो मंजिला तक
तो वो सिद्धांत अपने
मूल रूप में रहते हैं ।
वो द्वार ,दीवार,खिड़कियां
और रोशनदान
जिनसे होकर हर ऋतु का
अनुभव हो जाया करता है।
नींव के पत्थरों को,
धीरे-धीरे इमारत की
भव्यता बढ़ती जाती है।
और वह गगनचुंबी हो जाती है।
फिर कहां कंगूरें को
नींव के पत्थर की याद आती है
नींव के पत्थर
कभी बोलते नहीं
अपने किए हुए
कर्मों को पाप पुण्य के
तराजू में तोलते नहीं।
डॉ. कांता मीना, शिक्षाविद् एवं साहित्यकार