Sunday, November 24, 2024

अंतर्मन से अपरिग्रह की भावना ही उत्तम आकिंचन धर्म है

आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करके परिग्रह रहित जीवन ही उत्तम आकिंचन धर्म है

उत्तम त्याग सामान्यतया स्वत्वाधिकार को छोड़ना है, वह वस्तु से सम्बंधित हो या सेवा से संबंधित। कर्मो की निर्जरा में जो उत्सर्जन का रक्त भी त्याग की श्रेणी में आता है ।आकिंचन में आरंभिक चरण में ही आवश्यकता से अधिक ग्रहण नहीं करना, स्वीकार नहीं करना है, यद्यपि जीवन के किसी भी चरण में यह आभास होने लगे कि अमुक कोई वस्तु उसके पास आवश्यकता से अधिक है, तो उसका त्याग करना या दान देना भी आकिंचन या अपरिग्रह कहलाता है एवम अपरिग्रह जब आत्मा के श्रद्धान् – सम्यक दर्शन सहित होता है, उत्तम आकिंचन धर्म कहलाता है ।

जैनधर्म के दशलक्षण धर्मों में आकिंचन धर्म का सार (Essense of Religion) है । आकिंचन धर्म का अभिप्राय है अपरिगृही । अंतर्मन से त्याग करना ही उत्तम आकिंचन धर्म है ।
मेरा कुछ भी नहीं है, ये अनुभूति – जीवन के यथार्थ को स्वीकार करना, किसी वस्तु को छोड़ना या दान देकर उस पर – परिग्रह के राग द्वेष, मोह, ममत्व भाव को त्यागना आकिंचन धर्म है ।
आत्मा की सफाई के लिए हमे अपने पास कुछ नहीं रखना है, सर्वस्व न्यौछावर कर देना है और अपने पास कुछ भी नहीं रखते हुए अपनी आत्मा को हल्का बनाकर संसार रूपी सागर को पार करने का मार्ग प्रशस्त करना उत्तम आकिंचन धर्म है।
दुनियां में मात्र दिगंबर मुनि ही आकिंचन धर्म का पालन करने का सटीक उदाहरण है । दिगंबर जैन मुनि अपने गृहस्थ जीवन का समस्त उपार्जित धन, जो करोड़ों में हो सकता है, अपने परिवार, सगे संबंधी, सुख-सुविधा पूर्ण संपन्न जीवन छोड़कर दिगंबर वेश धारण करते है एवं आकिंचन धर्म का पालन करते हुए पीछी, कमंडल एवं शास्त्रों के अतिरिक्त कुछ नही रखते है । आहार भी एक ही बार ग्रहण करते है, यानी जीवन की आवश्कता आहार में भी दिन में एक बार एवं कई बार कई दिनों तक निराहार रहकर अपरिग्रह धर्म का पालन करते है । सुख सुविधा रहित प्राकृत जीवन के साथ साधना रत रहते है । सबसे महत्वपूर्ण यह है कि दिगंबर मुनि ऐसे जीवन के साथ, जिसे हम कठोर जीवन कहते है, में भी परम सुख, आनंद की अनुभूति करते है, क्योंकि उन्होंने उत्तम आकिंचन धर्म, समर्पण का, छोड़ने का स्वाद चख लिया है ।

परिग्रह 2 प्रकार का होता है – 1) अंतरंग परिग्रह एवं 2) बहिरंग परिगृह । अंतरंग परिग्रह के 14 भेद और बहिरंग परिगृह के 10 भेद होते है । अ) अंतरंग परिग्रह 1. मिथ्यात्व 2. क्रोध 3. मान 4. माया 5. लोभ 6. हास्य 7. रति 8. अरित 9. शोक 10. भय 11. जुगुप्सा (ग्लानि) 12. स्त्रीवेद, 13. पुरूषवेद और 14. नपुंसकवेद ।
बहिरंग परिग्रह दस प्रकार के होते हैं –

  1. क्षेत्र (खेत, प्लाट) 2. वास्तु (निर्मित भवन) 3. धन (चांदी, सोना जवाहरात, मुद्रा) 4. धान्य 5. द्विपद (मनुष्य, पक्षी) 6. चतुष्पद (पशु) 7. यान (सवारी) 8. शय्यासन 9. कुप्य एवं 10. भांड ।
    इसप्रकार परिग्रह कुल चैबीस प्रकार के माने गये हैं। कहा भी है –
    ’’परिग्रह चौबीस भेद, त्याग करें मुनिराज जी ।
    उक्त चौबीस प्रकार के परिग्रह का अभाव वाले त्यागी मुनिराज उत्तम आकिंचन धर्म के धारी होते हैं।

आकिंचन धर्म का पालन करने के लिए परिग्रह समझना आवश्यक है । सांसारिक चीजों को आवश्यकता से अधिक रखना परिग्रह है । समस्त पापों का मूल कारण परिग्रह है । परिग्रह को महा दुःख व बंध का कारण जानकर छोड़ना ही उत्तम आकिंचन धर्म है । पुण्योदय से मिले इस मनुष्य पर्याय को विषय भोगों की लालसा से दूर रखना ही समझदारी भरा परिपूर्ण मार्ग है। हम इस मार्ग को जानते है तो इसे अपनाने से परिपूर्ण सुख की और बढ़ा जा सकता है । यथार्थ में समझदार बन सकते है । परिग्रह का परित्याग कर परिणामों को आत्म केंद्रित करना ही आकिंचन धर्म की भावधारा है । ज्यादा इकट्ठा करने की भावना का त्याग करना और जीवन में यही विचार करना कि संसार में किंचित मात्र भी मेरा कुछ भी नहीं है ।

जैन समाज की विभिन्न ट्रस्ट समितियों में एक समय सीमा के बाद पद छोड़ना भी आकिंचन है, इसे उत्तम आकिंचन धर्म बनाया जा सकता है, यदि यह कार्य समता भाव से किया जाय ।

संकलन भाग चंद जैन मित्रपुरा
अध्यक्ष अखिल भारतीय जैन बैंकर्स फोरम, जयपुर।

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