त्याग का वास्तिक अर्थ छोड़ना नहीं, प्राप्त करना है, देने के सुख का अनुभव करना है ।
त्याग का सबसे बड़ा उदाहरण दिगंबर जैन संत है।
प्राणायाम – कपालभाति में हम श्वास छोड़ते है, बाहर निकालते है लेकिन उसकी प्रतिपूर्ति प्राकृतिक रूप से लगातार होती रहती है । इसी तरह सांसारिक एवं आध्यात्मिक रूप से भी हम किसी भी वस्तु / तत्व का त्याग करते है तो नियमानुसार हमारी आवश्यकतानुसार पुनर्भरण होती रहती है ।
“उत्तम त्याग धर्म” निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके बाह्य और आभ्यांतर परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं ।
छोड़ने की भावना जैन धर्म में सबसे अधिक है, क्योंकि एक जैन-संत केवल अपना घर-बार ही नहीं, बल्कि अपने कपड़े भी त्याग देता है, भोजन, जल ग्रहण भी सीमित मात्रा में ही दिन में केवल एक बार, वो भी दैनिक नहीं और पूरा जीवन दिगंबर मुद्रा धारण करके व्यतीत करता है ।
उत्तम त्याग धर्म हमें यही सिखाता है कि मन को संतोषी बनाकर ही इच्छाओं और भावनाओं का त्याग करना मुमकिन है । त्याग की भावना भीतरी आत्मा को शुद्ध बनाने पर ही होती है ।
त्याग—दान से अवगुणों का समूह दूर हो जाता है, त्याग से निर्मल कीर्ति फैलती है, त्याग से बैरी भी चरणों में प्रणाम करता है और त्याग से भोगभूमि के सुख मिलते हैं।
निश्चय से आत्मस्वरूप का ग्रहण करते हुये मोह-राग-द्वेष भावों का त्याग करना ही उत्तम त्याग धर्म है।
आत्मशुद्धि के उद्देश्य से विकार भाव छोड़ना तथा स्व-पर उपकार की दृष्टि से धन आदि का दान करना त्यागधर्म है। अतः भोग में लाई गई वस्तु को छोड़ देना भी त्याग धर्म है ।
आध्यात्मिक दृष्टि से राग द्वेष क्रोध मान आदि विकार भावों का आत्मा से छूट जाना ही त्याग है। उससे नीची श्रेणी का त्याग धन आदि से ममत्व छोड़कर अन्य जीवों की सहायता के लिए दान करना है। त्याग और दान में बहुत बारीक अन्तर है |
त्याग करने वाला व्यक्ति यह नहीं देखता की सामने वाला याचक है या नहीं, वह बिना याचक के ही किसी वस्तु/स्थान/व्यक्ती को छोड़ देता है | एक त्यागी पुरुष कभी यह नहीं सोचता कि उसके द्वारा त्यागी हुई वस्तु/स्थान/व्यक्ती को कौन ग्रहण करेगा । जब कि एक दानी किसी की मांग पर किसी विशिष्ट वस्तु/स्थान/व्यक्ती को देता है | एक दानी पुरुष, याचक की जरूरत और ग्रहण करने की क्षमता, और अपनी दान देने की क्षमता के अनुसार ही दान करता है |
इसलिए यह कहा जा सकता है कि जो बिना मांगे देता है वो त्यागी है और जो माँगने पर देता है वह दानी है |
त्याग सदैव दान से वृहत है ।
किसी को भी कुछ देना दान कहलाता है यह अन्न वस्त्र अथवा धन के रूप में हो सकता है । किसी वस्तु को छोड़ना त्याग कहलाता है जैसे वर्धमान अपने राज्य को छोड़कर सन्यासी बन गए थे, यह त्याग कहलाता है ।
दान के मूल 4 प्रकार हैं- (1) पात्रदान, (2) दयादान (3) अन्वयदान (4) समदान।
पात्रदान : मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, आदि धर्मपात्रों को दान देना पात्रदान है।
पात्र के संक्षेप से ३ भेद हैं – (1) उत्तम, (2) मध्यम, (3) जघन्य।
महाव्रतधारी मुनि उत्तम पात्र है। अणुव्रती श्रावक माध्यम पात्र हैं। व्रतरहित सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। इनको दिया जाने वाला दान ४ प्रकार का है
(1) आहारदान, (2) ज्ञानदान, (3) औषधदान (4) अभयदान।
(1) आहारदान मुनि, आर्यिका आदि पात्रों को यथा विधि भक्ति, विनय आदर के साथ शुद्ध भोजन कराना आहारदान है।
(2) ज्ञानदान: मुनि आदि को ज्ञानाभ्यास के लिए शास्त्र, अध्यापक का समान जुटा देना ज्ञानदान है।
(3) औषधदान: मुनि आदि व्रती त्यागियों के रोगग्रस्त हो जाने पर उनको निर्दोष औषधि देना, उनकी चिकित्सा (इलाज) का प्रबंध करना, उनकी सेवा सुश्रुषा करना औषधदान है।
(4) अभयदान: वन पर्वत आदि निर्जन स्थानों में मुनि आदि व्रती त्यागियों को ठहरने के लिये गुफा मठ आदि बनवा देना जिससे वहाँ निर्भय रूप से घ्यान आदि कर सकें, अभयदान है।
दयादान या करूणादान : दीन दुःखी जीवों के दुःख दूर करने के लिए आवश्यकता के अनुसार दान करना दयादान है। दुखी दरिद्री, निर्धन विद्यार्थी, गरीब रोगियों, दीन दरिद्र दुर्बल जीव भयभीत जीव आदि को उनकी जरूरत के अनुसार सहायता करना दयादान या करुणादान है।
समदान :समाज उन्नति के लिए जो धन खर्च किया जावे, संगठन बढ़ाने के लिये जो द्रव्य लगाया जावे, समदान है। जैसे-धर्मशाला बनवाना, विद्यालय पाठशाला खोलना, योग्य वर तलाशना इत्यादि।
अन्वयदान :-अपने पुत्र, पुत्री, भाई बहिन, भानजे, भतीजे आदि सम्बन्धियों को द्रव्य देना अन्वयदान है।
इन चारों दानों में से पात्रदान भक्ति से दिया जाता है। करुणादान दयाभाव से किया जाता है। समादान सामाजिक प्रेम से किया जाता है और अन्वयदान सम्बंध के स्नेह से दिया जाता है।
दान का उपदेश सुपात्र को चारों प्रकार का दान देना और देव-शास्त्र- गुरू की पूजा करना श्रावक का मुख्य धर्म है। ये दोनों कार्य जो प्रतिदिन अपना कर्तव्य मानकर पालन करता है वही सच्चा श्रावक है ।
जैसे कुँये का पानी यदि कुँये से निकलता रहे तो निर्मल भी रहता है और बढता भी रहता है , लेकिन यदि पानी कुँये से निकाला न जाये तो सड़ जाता है , ठीक उसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी लक्ष्मी को धर्म की प्रभावना और दूसरों की सहायता में खर्च करता है, वास्तव में वही धन सफल भी है।
गृहस्थ अपने कमाये हुये धन के चार भाग करे , उसमें से एक भाग को जमा रखे , दूसरे भाग से जरूरत का सामान खरीदे , तीसरे भाग से धर्मकार्य और अपने भोग-उपभोग में खर्च करे , और चौथे भाग से अपने कुटुम्ब का पालन करे।
कविवर द्यानतराय जी तो यहाँ तक कहते हैं कि बिना दान के श्रावक और साधु दोनों ही बोधि यानि रत्नत्रय को प्राप्त नहीं करते।
हम सब भी अपनी-अपनी शक्ति अनुसार दया दानादि के भावों में प्रवृत्ति करते हुये उत्तम त्याग धर्म को धारण करे और मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हों ऐसी मंगल भावना है।
अंतत: त्याग का अर्थ दृश्यमान रूप में कुछ छोड़ना है जबकि फलस्वरूप प्राप्त आत्म संतुष्टि अनमोल होती है, दूसरी और त्याग में स्वयं की संतुष्टि के साथ जिसके पक्ष में किया गया है उसे एवं सभी तत्संबंधी व्यक्तियों को यथानुसार अनुलाभ प्राप्त होता है ।
आईए उत्तम त्याग धर्म का पालन करे ।
संकलन, भाग चंद जैन मित्रपुरा
अध्यक्ष, अखिल भारतीय जैन बैंकर्स फोरम, जयपुर ।