प्रशममूर्ति आचार्य श्री 108 शान्ति सागर जी महाराज 'छाणी' मुनि दीक्षा शताब्दी (1923-2023) पर विशेष
दिल्ली। परम पूज्य आचार्य श्री 108 शान्ति सागर जी महाराज ‘छाणी’ का जन्म सन 1888 में कार्तिक बदी ग्यारस को राजस्थान प्रान्त के उदयपुर नगर के समीप स्थित छाणी ग्राम में हुआ था आपने सन 1922 में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की तथा एक वर्ष पश्चात ही सन 1923 में भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी तदनुसार 23 सितम्बर 1923 को राजस्थान के सागवाड़ा नगर में मुनि दीक्षा अंगीकार कर आत्म-कल्याण के मार्ग पर आरुढ़ हुए. मुनि रूप में आपने दिगम्बर मुनि की चर्या, उनके मूलगुणों की साधना तथा उनके तपश्चर्या के विविध आयामों से जैन समाज को परिचित करवाया। गौरवशाली छाणी परंपरा के प्रमुख संत परम पूज्य आचार्य श्री 108 अतिवीर जी मुनिराज ने पूज्य आचार्य-प्रवर के दीक्षा शताब्दी के अवसर पर उनके चरणों में अपनी विनयांजलि अर्पित करते हुए बताया कि आचार्य श्री 108 शान्ति सागर जी महाराज ‘छाणी’ ने उत्तर भारत में भ्रमण कर मुनि परंपरा को संरक्षित एवं व्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. यद्यपि आचार्य श्री को दीक्षोपरांत मात्र 22 वर्ष ही धर्म प्रचार हेतु मिले परन्तु जैन मुनि परंपरा में उनका योगदान अत्यंत विशिष्ट है. आपने 1923 से लेकर 1944 के मध्य लगभग समस्त उत्तर भारत में दिगम्बर जैन मुनि के रूप में सतत विहार किया। आप एक सच्चे समाज सुधारक थे तथा आपने समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का साहसिक प्रयत्न किया। आपके अहिंसात्मक एवं धर्ममय प्रवचनों के माध्यम से कुप्रथाओं पर बंदिश लगी। गिरिडीह (झारखण्ड) प्रवास के दौरान आपके संस्कारित प्रवचनों से प्रभावित होकर एवं आगमोक्त चर्या को देखकर स्थानीय समाज ने सन 1926 में आपको आचार्य पद से सुशोभित किया। आचार्य श्री 108 शान्ति सागर जी महाराज ‘छाणी’, प्रथम ऐसे दिगम्बर मुनिराज थे जिन्होंने उत्तर भारत के नगरों की दूर-दूर तक पदयात्रा करके दिगम्बर साधु के विहार का मार्ग प्रशस्त किया। आपने सन 1926 में अपने संघ सहित कानपुर, लखनऊ, गोरखपुर, अयोध्या और बनारस आदि प्रमुख नगरों में धर्मप्रभावना करते हुए शाश्वत तीर्थाधिराज श्री सम्मेद शिखर जी की ओर मंगल विहार किया था। पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों के इतिहास में अभी तक कोई भी दिगम्बर मुनिराज यहाँ नहीं पधारे थे। राजस्थान के ब्यावर में इस युग के दो महान आचार्य – चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री 108 शान्ति सागर जी महाराज ‘ दक्षिण’ एवं प्रशममूर्ति आचार्य श्री 108 शान्ति सागर जी महाराज ‘छाणी’ का वर्षायोग एक साथ सानंद संपन्न हुआ। आपके धर्मप्रेरक उपदेशों से प्रभावित होकर समाज ने अनेक विद्यालय, धर्मपाठशालायें, वाचनालय, साधना आश्रम तथा साहित्य प्रकाशक संस्थाओं की स्थापना की। सन 1944 में ज्येष्ठ बदी दशमी तदनुसार दिनांक 17 मई 1944 को राजस्थान के सागवाड़ा नगर में समाधिपूर्वक मरण कर इस नश्वर देह का त्याग किया। पूज्य आचार्य श्री का जितना विशाल एवं अगाध व्यक्तित्व था, उनका कृतित्व उससे भी अधिक विशाल था। आचार्य श्री के कर-कमलों द्वारा अनेक भव्य जीवों ने जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर अपना जीवन धन्य किया। इस महान परम्परा में वर्तमान में सहस्त्राधिक दिगम्बर साधु समस्त भारतवर्ष में धर्मप्रभावना कर रहे हैं तथा भगवान महावीर के संदेशों को जनमानस तक पहुंचा रहे हैं।
संकलन – समीर जैन (दिल्ली)