Saturday, September 21, 2024

चातुर्मास स्थापना पर विशेष

आत्महित का साधन बने- चातुर्मास

वर्तमान युग की जो आध्यात्मिक शक्तियां हैं, चाहे वह किसी भी धर्म के मानने वालों की हों , वह दिगंबर जैन मुनियों को अत्यंत श्रद्धा और आस्था से देखती हैं। इसका कारण उनके वैराग्यमयी जीवन में त्याग की उत्कृष्ट भावना है। जो व्यक्ति संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो जाते हैं, वे त्याग मार्ग अपनाते हैं।
जैन धर्म त्याग प्रधान धर्म है। दिगंबर जैन मुनि तिल, तुष मात्र भी परिग्रह नहीं रखते। जो परिग्रह रखते हैं, उन्हें व्यक्ति साधु जीवन का सम्मान तो देता है परंतु उनके त्यागमय जीवन की प्रशंसा में संकोच करता है। इसका अर्थ है कि वह व्यक्ति यह मानता है कि दिगंबर मुनिराजों का जीवन ही त्याग की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है उनके पास मात्र तीन उपकरण होते हैं। पीछी, कमण्डलु और शास्त्र। इन तीनों के अलावा कोई भी वस्तु उनके लिए अनुपयोगी है। इसलिए वस्त्र त्याग कर वे तपस्या में रत रहते हैं। ज्ञान, ध्यान और तप में लीन हो जाना उनका स्वभाव बन जाता है। लोक में यह प्रसिद्ध है कि सर्व परिग्रह का त्याग करने वाले साधु ही आत्मज्ञान में लीन रह सकते हैं। संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का यदि भारत वर्ष ही नहीं, विदेशों में बसे समस्त समाज के लोग भी सम्मान करते और श्रद्धा रखते थे तो इसका कारण जिनागम के प्रति अटूट आस्था तथा जिनधर्म के प्रति समर्पण भाव था वे कुगुरु, कुदेव, कुधर्म में विश्वास न रख कर सच्चे देव शास्त्र और गुरुओं में विश्वास रखते थे। उनका विश्वास था कि आत्मा के कल्याण के लिए रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र के मार्ग पर चलकर ही हम मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। संपूर्ण बंधनों से मुक्त हो सकते हैं, इसलिए वह पंचमकाल की परवाह न करते हुए सच्चे त्याग मार्ग पर चलते थे चर्या से भी वे सच्चे देव, शास्त्र और गुरुओं के प्रति समर्पित रहे और व्यक्ति उनके आशीर्वाद को जीवन की सबसे बड़ी सफलता बताते रहे। आज भी कई साधु ऐसे है जो अनेक लोगों को त्याग मार्ग पर लगाकर जिनधर्म के अनुरूप बना रहे हैं। साधुगण जैन धर्म में वर्णित चातुर्मास के अनुरूप कार्य करें। जीवों की विराधना और हिंसा से बचें, यह सभी के लिए उचित है।
इस वर्ष 21 जुलाई से चातुर्मास प्रारंभ हो गये है। पैदल विहार कर आठ माह तक धर्म प्रभावना करने वाले साधुगण एक स्थान पर रहकर चातुर्मास करेंगे। चातुर्मास में व्यक्ति का आचरण धर्मानुरूप बने, अधर्मी , धर्म मार्ग में लगें, त्याग के महत्व को समझें, उनका जीवन सदकार्यों के लिए समर्पित रहे, सच्चे देव, शास्त्र और गुरुओं की व्याख्या पंथवाद में न फंँसे, श्रावक द्रव्य पूजा के अंतर्गत अष्ट द्रव्य से पूजा करें तथा साधु भाव पूजा ही करें, इसी का प्रचार धर्म सम्मत है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए चातुर्मास में बनाये गये मंचों का उपयोग न करें ऐसी भावना सभी की होनी चाहिए । साधुगण चातुर्मास के धर्मोंपदेश में प्रथमानुयोग के दृष्टांतों का उल्लेख कर धर्म की शुरुआत करते हुए करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग का उपयोग कर धर्मोंपदेश दें, ऐसे प्रयास होने चाहिए। व्यर्थ का प्रदर्शन न हो इसका ध्यान रखा जाना चाहिए।
आज की स्थिति में देखें तो कई साधुओं की अगवानी में विशाल जुलूस निकालकर बाहरी संसाधनों के प्रदर्शन से उनके प्रभाव को प्रदर्शित किया जाता है। कई व्यक्ति ऐसे साधु चाहते हैं जिनसे दान के माध्यम से लाखों की आमदनी हो और मंदिरों और धर्मशालाओं का निर्माण हो। दूसरी तरफ यह स्थिति है कि अनेक साधु साध्वियों को चातुर्मास करने में भी दिक्कत आती है। कई साधु तेरा -बीस पंथ की भावना से ग्रसित होकर विवादास्पद क्रिया – कलापों को प्राथमिकता देते हैं। अतः इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी धर्मोंपदेश से सामाजिक जीवन की एकता प्रभावित न हो तथा व्यक्ति जिन पूजा और दान के महत्व को समझकर कार्य करें, स्वाध्याय में रुचि बने, ऐसे प्रयास करना चाहिए। ताकि चातुर्मास व्यक्ति के आत्महित का साधन बने।

डॉ नरेन्द्र जैन भारती
वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक
सनावद जिला खरगोन म. प्र.

- Advertisement -spot_img

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Latest article