धन दौलत सिर्फ हमारे रहन-सहन के स्तर को बदल सकती है,
लेकिन हमारी नियति, बुद्धि और तक़दीर को नहीं।
बच्चा जब जन्म लेता है, तो दो मुट्ठी पुण्य की दौलत को लेकर आता है। बच्चे की मुट्ठी को आप कितना ही खुलवाएं, वो बच्चा मुट्ठी खोलता नहीं है। समझदारी इसी में है, जब हम यहाँ से जायें तो दो ट्रक पुण्य, सेवा, सत्कर्म, परोपकार, दया, धर्म, सत्संग की दौलत को अपने साथ लेकर जायें। दो मुट्ठी पुण्य के फल से हमें परिवार मिला, कुछ धन, दौलत, वैभव मिला। उम्र के प्रभाव से वह बढ़ता गया। जमीनें खरीदी, मकान बनवाया, लोगों को काम पर रखा, उनका पेट भरा, कितनों पर हुकूमत की, और कितनों के सामने गिड़गिड़ाया, पर जाते समय दोनों हाथ फैलाकर, उंगलियों को तानकर, बन्द मुट्ठी खोलकर चला गया। मनुष्य जीवन की यही सबसे बड़ी विचित्रता है। इन्सान जो पुण्य की दो मुट्ठी दौलत लेकर आया था, उसे सत्कर्म, सेवा, परोपकार से आजमाया और चल दिए। यही विचित्र परिवर्तन ही संसार का नियम है। इस परिवर्तन से सिर्फ शरीर ही नहीं बदलता बल्कि मन, भाव, सोच, विचार, संकल्प, इच्छायें भी बदलती है। वो बहुत सौभाग्य शाली होते हैं जो इन परिवर्तनों को देखकर, समझ पाते और अपने आप को सम्भाल पाते। क्योंकि जिस प्रकार जमीन के नीचे पानी और पत्थर में परमात्मा की छवि छुपी होती है, उसी तरह हर आत्मा में परमात्मारूपी बनने की ज्योति छिपी होती है। जिस तरह पानी निकालने के लिये गड्ढा खोदना पड़ता है और पत्थर में प्रतिमा के दर्शन के लिये तरसना पड़ता है। उसी तरह आत्मा में बैठे परमात्मा के दर्शन के लिये, मनुष्य को तप, त्याग, संयम और साधना से गुजरना पड़ता है…
संकलन : नरेंद्र अजमेरा पियुष कासलीवाल औरंगाबाद