भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में अंग्रेज़ों व ज़मींदारों के विरुद्ध अपनी-अपनी मातृभूमि, जंगल-ज़मीन को बचाने लिए तान्त्या भील, बिरसा मुण्डा, वीर नारायण सिंह, सिद्धो कान्हो आदि महान् जनजातीय नेताओं के नेतृत्व में आदिवासियों ने अनेक विद्रोह किए है। इन्हीं नेतृत्वकर्ताओं में से एक हैं राजस्थान और गुजरात में आदिवासियों के मसीहा कहे जाने वाले एकी आन्दोलन के प्रणेता मोतीलाल तेजावत।
क्रान्तिवीर मोतीलाल तेजावत का जन्म 1888 में उदयपुर झाड़ोल के पास कोल्यारी एक में हुआ। शिक्षा समाप्ति के बाद इन्हें झाड़ोल में ही नौकरी मिल गई, किन्तु अपने काम के दौरान अधिकारियों द्वारा भीलों, गरासियों और कृषकों का शोषण होता देखकर उनका मन विचलित हो गया। उन्होंने नौकरी छोड़ दी और आदिवासियों को अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के विरुद्ध जागरूक करने का कार्य आरम्भ कर दिया।
तेजावत बिजोलिया आन्दोलन से बहुत प्रभावित थे। अतः उसी की तर्ज पर उन्होंने भीलों को इकट्ठा करना आरम्भ किया। उन्होंने गाँव-गाँव जाकर सभाएँ की और जनजातीय किसाने की माँगों का एक माँगपत्र तैयार करना शुरू किया। फलस्वरूप, उनके नेतृत्व में बड़ी संख्या में लोग एकत्रित होकर इस आन्दोलन से जुड़ते चले गए।
तेजावत के प्रयासों से 1921 में मातृकुण्डिया में वैशाखी पूर्णिमा के मेले में आदिवासियों की पंचायत आयोजित हुई, जिसमें बेगार, लगान एवं जागीरदारों के अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष करने तथा अपनी समस्याओं से मेवाड़ के महाराणा को अवगत कराने का निर्णय लिया गया।
इन्हीं सभाओं में मोतीलाल तेजावत ने सभी आदिवासियों को एकता की शपथ दिलाई, जिस कारण यह आन्दोलन ‘एकी आन्दोलन’ कहलाया। तेजावत के नेतृत्व में आदिवासियों ने अपनी 21-सूत्री माँगों को लेकर उदयपुर में धरना दिया। अन्ततः, महाराणा ने इनकी 18 माँगे मान लीं। यद्यपि तीन प्रमुख माँगे, जो जंगल से लकड़ी काटने, बीहड़ से घास काटने तथा सूअर मारने से सम्बधित थीं,
आदिवासियों के जागरूक हो जाने से ज़मींदारों में रोष व्याप्त हो गया, जिसके कारण उन्होंने तेजावत की हत्या का प्रयास किया। इस घटना से उद्विग्न होकर भीलों ने झाड़ोल को घेर लिया और अपराधियों को दण्ड देने के आश्वासन पर ही वे वहाँ से हटे। देखते-ही-देखते, यह आन्दोलन मेवाड़ की सीमा के बाहर भी अपने पंख फैलाने लगा और सिरोही तक पहुँच गया।
आन्दोलनकारियों एवं आस-पास के स्थानीय लोगों में एकी आन्दोलन और तेजावत की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए मेवाड़ सरकार ने तेजावत की गिरफ़्तारी पर ₹500 का इनाम घोषित कर दिया। बहुत प्रयासों के बावजूद भी सात वर्षों तक तेजावत को बन्दी नही बनाया जा सका। जमिंदारों के इन असफल प्रयत्नों व आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव को देख अंग्रेजी सरकार सकते में आ गई।
7 मार्च 1922 को तेजावत के नेतृत्व में एकी आन्दोलन के अन्तर्गत पाल- चितारिया में आदिवासियों की एक विशाल जनसभा हो रही थी। वहीं ब्रिटिश अधिकारी मेजर एच. जी. सटनके नेतृत्व में सभा मैं मौजूद सभी लोगों पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसाई गई, जिसमें असंख्य जनों की मृत्यु हो गई। इस आन्दोलन व घटना को दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने आस-पास के कई जला डाले ताकि कोई प्रमाण शेष न बच जाए। इस घटना में तेजावत को भी पांव में 2 गोलियां लगीं। उनके साथी किसी प्रकार उन्हें वहाँ से बचाकर निकाल ले गए।
जलियाँवाला बाग के बाद यह अंग्रेज़ों द्वारा किया गया दूसरा बड़ा नरसंहार था। यह घटना जलियाँवाला बाग की घटना के ठीक तीन वर्ष बाद हुई थी, लेकिन इसे इतिहास में इसका उचित स्थान कभी नहीं मिला। अंग्रेज़ इस घटना को सामने नहीं आने देना चाहते थे, अतः उन्होंने योजनाबद्ध प्रक्रिया से इस घटना को दबा दिया, ताकि इसकी आग पूरे देश में न फैले।
भले ही मेजर सटन ने माल 22 लोगों की मृत्यु का आँकड़ा दिया हो और इस नरसंहार को सरकारी दस्तावेज़ों से मिटा दिया हो, पर जैसा कि कहा जाता है: बलिदानियों के रक्त की एक बूँद भी जिस मिट्टी पर गिरी हो, वह मिट्टी अपने इतिहास का वर्णन स्वयं करती है। एक अनुमार के अनुसार, उस समय वहाँ 1200 निर्दोष लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, और वहाँ स्थिति दो कुएँ उन बलिदान हुए आदिवासियों से पाट दिए गए थे।
इस दुर्दान्त घटना के बाद भी तेजावत ने राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेने का क्रम अटूट रखा और पुनः जेल गए। स्वतन्त्रता के बाद वह पाल- चितारिया गए और पुनः उसी स्थान पर सभा की। वहाँ वीरगति को प्राप्त हुए प्रत्येक वीर को श्रद्धांजलि अर्पित की और इसे वीरभूमि का नाम दिया। इसके अलावा स्थानीय लोगों से हर वर्ष 7 मार्च को इन बलिदानियों के नाम पर मेला लगाने को कहा, जो आज भी आयोजित होता है। स्वाधीनता के बाद भी उन्होंने आदिवासियों के मध्य रचनात्मक कार्य करना जारी रखा। 14 जनवरी 1963 को मोतीलाल तेजावत की मृत्यु हो गई।
पाल-चितारिया में हुए इस नरसंहार में दाधवाव गाँव के लोगों ने भी हिस्सा लिया था, इसलिए इसे ‘पाल-दाधवाव नरसंहार’ के रूप में भी जाना जाता है। यह स्थान वर्तमान गुजरात के साबरकांठा जनपद के विजयनगर तालुका में स्थित है। देश के वर्तमान प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमन्त्री थे, तो उन्होंने के में नरसंहार स्थल पर मोतीलाल तेजावत का स्मारक बनवाकर इस घटना को विश्व के समक्ष लाने में अपना योगदान दिया।
डॉ. दर्शना जैन, जयपुर