निर्जीव होते रिश्तों के पतझड़ के मौसम में जब किसी उत्सव त्यौहार की बहार आती है, तो पल दो पल या कुछ वक्त के लिए ही सही अरमानों की नई कोपल फूट पड़ती है और मन मयूर संबंधों और भावनाओं की नई खुशबू से नाच उठता है और जब यह पर्व दीपावली का हो तो बात कुछ खास हो जाती है, खास इसलिए की दिवाली अंधेरे पर उजाले की जीत का प्रतीक है। यदि अंधेरा जीवन के एक उदास पहलू का नाम है, तो रोशनी जिंदगी के उसे दूसरे पहलू के रूप में परिभाषित होती है। जिसके रंग उल्लास और उमंग से बनते हैं। दिवाली का यही अर्थ है और यही अर्थ हमारी सामाजिकता को एक नया रंग रूप प्रदान करता है। शायद यही वजह है कि दिवाली की आहट होते ही पलके अपनों के इंतजार में बिछ जाती है। हृदय संबंधों को संजीव करने की जुगत में धड़क उठता है और मन संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने में व्यस्त हो जाता है।
सुख शांति और समृद्धि की चाह में हम जैसे ही जैसे अमावस्या की रात को दीपकों की रोशनी से उजास करते जाते हैं, वैसे-वैसे संबंधों की ढीली पड़ी गांठ को मजबूत करने के लिए कुछ गांठ और बांध लेते हैं। पर जैसे ही दीवाली के दीपकों की लौ बुझती है रात के रंग की तरह मन का रंग भी काला पड़ने लगता है और धीरे-धीरे रिश्तो की गर्माहट फिर से ठंडे कोहरे में समा जाती है, जैसे सब कुछ बनावटी सा दिखावे के रंगों से रंगा हुआ।
आखिर इसका मतलब क्या है? क्या सच यह नहीं है कि हम बिल्कुल बनावटी हो गए हैं? हम अपना प्रेम अपना भाव अपना संबंध और मानवीयता तभी प्रदर्शित करते हैं जब उस प्रदर्शन से हमें कोई लाभ होने की उम्मीद हो? त्यौहार हमारे ऐसे ही प्रदर्शन के प्रतीक बन गए हैं। जब त्यौहार आते हैं हम अपनो को, सगे संबंधियों को एकत्रित कर अपने वैभव ठाठ बाट, ऐश्वर्य और धन दौलत की नुमाइश करते हैं। वे मुग्ध होते हैं तो हम खुद को बड़ा महसूस करते हैं और हमारा लाभ यह है कि हमारे अहं की संतुष्टि होती है। हमारे मन में यह भाव तो होता ही नहीं कि त्यौहारों के माध्यम से आपसी सद्भाव को बढ़ाया जा सकता है और संबंधों को नया रंग रूप दिया जा सकता है। जब हमारी मूल सोच यही है तो हमें सामाजिकता से क्या लेना? सामाजिक सरोकारों से क्या लेना?
अगर आज आदमी, आदमी से टूट रहा है, रिश्ते व्यवसायिकता में बदल रहे है, मन की कोमल भावनाएं पथराकर निर्दयी बनती जा रही है, तो इसकी मूल वजह हमारी ऐसी ही सोच का होना है। जब तक हमारे विचार नहीं बदलेंगे इंसानियत की सोच नहीं पैदा होगी, पूरा समाज इसी तरह से बिखरा बिखरा तनावग्रस्त नजर आता रहेगा, भले ही हर साल हम दीपावली के हजारों हजार दीपक जलाकर रात का अंधेरा भगाते रहे।
बेहतर यह होगा कि इस साल की दीवाली हम मानवता और भाईचारे की नई थीम के साथ मनाये। यदि बाती प्रेम की हो तो तेल हो सद्भाव का। दीपक की जो रोशनी हो, उससे मन का अंधियारा दूर हो। उल्लास सामाजिक उत्थान का हो और मन में उमंग हो, एक दूसरे से जुड़ने की। अगर हम ऐसी दीवाली मना पाए तो सच में जो उजाला पैदा होगा वह निहायत अद्भुत और सौम्य होगा। पर क्या ऐसा होगा?
पूजा गुप्ता
मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)