आत्मा का कल्याण धर्म ध्यान से ही होगा: आचार्य श्री
अशोक नगर। अपनी आत्मा का कल्याण धर्म-ध्यान से ही होगा धर्म-ध्यान से पहले आर्त्तध्यान जो इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग पीड़ा चिन्तवन और निदान रूप हैं व रौद्र-ध्यान जो हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और परिग्रहानन्द रूप हैं वे जीवन के सबसे बड़े शत्रु हैं, उनसे छुटकारा पाना होगा। तभी शरीर तो पुद्गल और आत्मा अजर-अमर-अवनाशी है, यह भेद-विज्ञान अंतर में अनुभव हो पाएगा। स्वयं के अंतर में जब ऐसा ज्ञान का दीपक जलने लगता है, तब ही समझना कि धर्म ध्यान मेरे जीवन में कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। धर्म ध्यान के बाद ही शुक्ल ध्यान हो पाता है संसार से मुक्ति पाने के लिए धर्म ध्यान आवश्यकता है उक्त आश्य केउद्गार आचार्यश्री आर्जवसागर जी महाराज ने गांव मन्दिर में धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए व्यक्त किए।
इसके पहले मध्यप्रदेश महासभा संयोजक विजय धुर्रा ने कहा कि 15अक्टू से 23अक्टू तक प्रतिष्ठा चार्य प्रदीप भइया शुयस के निर्देशन में श्री मद् जिनेन्द्र चौबीस समवशरण महा मंडल विधान एवं विश्व शांति महायज्ञ का भव्य आयोजन किया जा रहा है इस हेतु कटनी से विजय कुमार विश्व वव्लूभ इया की टीम दिन रात काम कर चौबीस समवशरण को तैयार कर रही है इसमें आप सब बैठ कर महा आराधना कर सकें इस दौरान जैन युवा वर्ग संरक्षण शैलेन्द्र श्रागर ने कहा कि आचार्य श्रीआर्जवसागर जीमहाराज ससंघ केसान्निध्य में होने वाले समवशरण महा मंडल विधान में बैठने वाले सभी पात्रों को हार मुकुट माला के साथ ही इन्द्र इन्द्रणी को पीत बस्त्र कमेटी द्वारा प्रदान किए जाएंगे आप अपने परिवार मित्रों के साथ भी समवशरण में बैठकर महा पूजन का सौभाग्य अर्जित कर सकते हैं इसके पहले गांव मन्दिर पहुंच ने पर कमेटी अध्यक्ष राकेश कासंल महामंत्री राकेश अमरोद संयोजक मनीष सिघई अरविंद कचंनार नरेश एडवोकेट संजय मुडरा धर्मेन्द्र जैनसहित सभी भक्तों ने श्री फल भेंट किए।
त्याग में सुख है, राग में दुःख मिलता है इस जगत में
उन्होंने कहा धर्म करने से पूर्व उसका सही स्वरूप समझें तभी तो उसका वास्तविक लाभ आत्मा को मिलेगा। ध्यान रखना हिंसादिक पाप रूप रौद्र-ध्यान जीवन में सबसे बड़ा बाधक तत्त्व है और इससे छुटकारा पाए बिना धर्म ध्यान का कोई मतलब नहीं है उन्होंने कहा कि गाड़ी चलाते हुए ड्राईवर को हर प्रकार की सावधानी रखनी पड़ती है, तभी तो उसकी यात्रा सफल होती पड़ौसी बर्बादी व भाई की दुर्गति पर प्रसन्नता अनुभव हो रही है, किसी को नीचा दिखाने या उसे गिराने में गर्व समझा जा रहा है, ये सभी दूरदर्शन में देखें या पास दर्शन में रौद्र-ध्यान का ही तो रूप है।जिन-जिन संसारी कारणों से राग-द्वेष बढ़ रहा है, नफरत व घृणा पनप रही है,स्वार्थ व कपट में बढ़ोत्तरी हो रही है, किसी भी जीव आत्मा को दु:ख व कष्ट (चाहे मन से ही) पहुंचाने में आनंद आ रहा है, यह सारी स्थितियां रौद्र-ध्यान को बढ़ा रही हैं। इनसे दूर हुए बिना धर्म-ध्यान संभव नहीं है। जब तक ये स्थितियां हैं तब तक श्रावक भी नहीं बना जा सकता। श्रावक बनने से पूर्व आर्तध्यान व रौद्र-ध्यान से छुटकारा पाना होता है। श्रावक वही होता जो अणुव्रत को ग्रहण कर पाता है।आचार्य श्री ने कहा कि जिसका जितना-जितना परिग्रह से अटेचमैण्ट है, वह उतना ही धर्म-ध्यान से दूर हो जाता है । वास्तविक रूप में धर्म-ध्यान तभी हो पाता है जब संसार में रहते हुए संसारी वस्तुओं से विरक्तहोने के भाव बढ़ते हैं। जो संसारी पदार्थों (धन-दौलत, सुख-सुविधा, ऐशोआराम, (मान-प्रतिष्ठा) में ही वृद्धि करने के प्रति लालायित व उन्हीं में लिप्त रहता है, वह पाप के भार से उतना ही नीचे की तरफ जाएगा और जो जितना जितना छोड़ेगा या उनसे अपनी दूरी बढ़ाने का नियम-संयम करेगा, वह उतना ही ऊंचा होता जावेगा । वीतरागी भगवान इसीलिए तो संसार में सबसे ऊंचे माने जाते हैं क्योंकि उन्होंने सर्वस्व त्याग दिया। जिन्होंने अपने शरीर व आत्मा कोअलग-अलग माना ही नहीं वरन् प्रैक्टिकल रूप में उसे चरितार्थ करके दिखा दिया। इसलिए जिन-जिन कारणों से रौद्र-ध्यान पनप रहा है, उन्हें कम करने का विवेक के साथ पुरुषार्थ करें। जब विवेक के संग कोई भी कार्य अथवा साधना या भक्ति या ध्यान किया जाएगा तो यह गारन्टी है कि उसके परिणाम भी फिर अच्छे ही सामने आएंगे।