रामद्वारा धाम में चातुर्मासिक सत्संग प्रवचनमाला
भीलवाड़ा। श्राद्ध का अर्थ ही पितरों की शांति का उपाय करना है। श्राद्ध कर्म उन्हें शांति प्रदान करने के लिए ही किया जाता है। इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि गया में पिंडदान कर दिया तो इसके बाद श्राद्ध व्यवस्था का विधान नहीं है। शास्त्रों की मान्यता है कि पिंडदान के बाद भी श्राद्ध कर्म जारी रखना चाहिए। ये विचार अन्तरराष्ट्रीय श्री रामस्नेही सम्प्रदाय शाहपुरा के अधीन शहर के माणिक्यनगर स्थित रामद्वारा धाम में वरिष्ठ संत डॉ. पंडित रामस्वरूपजी शास्त्री (सोजत सिटी वाले) ने मंगलवार को चातुर्मासिक सत्संग प्रवचनमाला के तहत व्यक्त किए। उन्होंने गर्ग संहिता के माध्यम से चर्चा करते हुए कहा कि श्रीराम सीताजी के साथ गयाजी में पिता राजा दशरथ का श्राद्ध करने गए थे। सीता द्वारा नदी किनारे बनाया गया रेती का पिंड गायब होने पर वह मानसिक पूजा से ही पूजा समाप्त कर नियत स्थान पर चली गई। इसके बाद श्रीराम पिंड बनाकर तर्पण करने लगे तो वह सीताजी के पिंड की तरह स्वीकार नहीं हुआ तो राम सोचने लगे कि क्या कमी रह गई। इतने में आवाज आई कि मैं दशरथ बोल रहा हूं मुझे तो पिंड सीता ने अर्पण कर दिया पर फिर भी तुम श्राद्ध कर्म कर लोक कल्याण के लिए पितरों का श्राद्ध करने रहना। शास्त्रीजी ने कहा कि जिसकी जो तिथि आती है उसी तिथि को उसका श्राद्ध किया जाना चाहिए क्योंकि हो सकता वह आगे पुनः पंचतत्वों के शरीर में पुर्नजन्म ले चुका हो। श्राद्ध कर्म से ही उन्हें शांति मिलेगी। ऐसे में पूरे श्रद्धाभाव के साथ पितरों का श्राद्ध कर्म करना चाहिए। सत्संग के दौरान मंच पर रामस्नेही संत श्री बोलतारामजी एवं संत चेतरामजी का भी सानिध्य प्राप्त हुआ। चातुर्मास के तहत प्रतिदिन भक्ति से ओतप्रोत विभिन्न आयोजन हो रहे है। भीलवाड़ा शहर के विभिन्न क्षेत्रों से श्रद्धालु सत्संग-प्रवचन श्रवण के लिए पहुंच रहे है। प्रतिदिन सुबह 9 से 10.15 बजे तक संतो के प्रवचन व राम नाम उच्चारण हो रहा है। चातुर्मास के तहत प्रतिदिन प्रातः 5 से 6.15 बजे तक राम ध्वनि, सुबह 8 से 9 बजे तक वाणीजी पाठ, शाम को सूर्यास्त के समय संध्या आरती का आयोजन हो रहा है।