Saturday, September 21, 2024

आत्म कल्याण हेतु धर्म के दस लक्षण अपनायें

विजय कुमार जैन राघौगढ़ म.प्र.
धर्म जीवन का आधार माना है । जैन धर्म में दस लक्षण पर्व या पयुर्षण पर्व का सर्वाधिक महत्व माना गया है जैन संस्कृति के अनुसार यह पर्व वर्ष में तीन बार भांदो, माघ, और चैत्र के महिने में शुक्ल पक्ष की पंचमी से चतुर्दशी तक 10 दिन मनाये जाते है मगर भाद्र पद माह में इस पर्व को जोरशोर से भक्ति भाव से मनाया जाता है । जैन धर्म के दिगम्बर श्वेतांबर दोनो संप्रदायों में इस पर्व को मनाने की प्राचीन परंपरा है । श्वेतांबर समाज भाद्र पद कृष्णा त्रयोंदषी से भाद्र पद शुक्ला पंचमी तक सिर्फ 8 दिन मनाते है । जबकि दिगम्बर समाज में दस दिन मनाने का प्रचलन है ।
प्रर्युषण जैन संस्कृति का जगमगाता महापर्व है । पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, भौतिकता की चकाचौंध में मानव धर्म साधना एवं आध्यात्मिकता से विमुख हो रहा है । त्याग और तपस्या को भूलकर निरन्तर भोग विलास में लिप्त है । जैन धर्म कहता है विभाव में लिप्त मानव को स्वभाव में लाने दस वैज्ञानिक प्रक्रियाओं का ज्ञान कराना आवश्यक है। आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी के अनुसार उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रम्हचर्य का संकल्प पूर्वक पालन विभाव को समाप्त कर स्वभाव में व्यक्ति को आकर्षित करने की सरल विधियां है । इन दस लक्षण धर्मों को हम जानने का प्रयास करें-
(1) उत्तम क्षमा धर्म-
मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूॅं, सभी जीव मुझे क्षमा करे, सब जीवों के प्रति मेरे मन में मैत्री हो किसी के प्रति भी बैर न हो । किसी से कलह न हो, अगर हो जाये तो उसका तत्काल निराकरण करें । कलह को बैर में न बदलें यही गृहस्थ की उत्तम क्षमा है ।
(2) उत्तम मार्दव धर्म-
आचार्य समन्तभद्र कहते है कि हम सबके मन में आठ फन बाला एक भयंकर विषघर बैठा है जो कुल जाति, रूप ज्ञान, धन, बल, वैभव और ऐश्वर्य के अभिमान से आत्मा को जड़ता की ओर आकर्षित करता है । इन आठ मद के अधीन हो मनुष्य अपना सर्वस्व खो रहा है । मार्दव धर्म इनसे बचने की हमें प्रेरणा देता है इन पर अभिमान करना अज्ञान है ।
(3) उत्तम आर्जव धर्म-
मदिरा का पात्र सौ बार अग्नि में तपाने पर भी शुद्ध नहीं होता है । अतएव कुटिलता, मायाचारी और कपट पूर्ण व्यवहार से बचने की प्रेरणा आर्जव धर्म हमे देता है । आर्जव धर्म कहता है सरलता और सदाचार को अपने जीवन का आदर्श बनाकर चलें । तभी आत्म कल्याण होंगा । दूसरों को ठगने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता।
(4) उत्तम शौच धर्म –
अपेक्षा है धन की आवश्यकता और अनिवार्यता के अन्तर को समझने की । धन जीवन का साध्य नही है । धन को जीवन निर्वाह का साधन मानकर चलना चाहिये। मुनि प्रमाण सार जी कहते है जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक धन का संचय करो, पर उसे आसक्ति के रूप में मत लो यह उत्तम शौच धर्म है ।
(5) उत्तम सत्य धर्म-
सत्य का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता । सत्य को परमेश्वर कहा है । हम सत्य का अनुभव कर सकते है, उसका साक्षात्कार कर सकते है । सत्य की उपलब्धि ही परमात्मा की उपलब्धि है । यही उत्तम सत्य धर्म है ।
(6) उत्तम संयम धर्म-
मन पर विजय पाना, विपरीत मार्ग की ओर बढ़ रही मन की प्रवृतियों को मोड़कर उन्हे सन्मार्ग की आरे ले जाने की प्रेरणा उत्तम संयम धर्म हमे देता है । विषयों की ओर आसक्ति, वासना, कषाय आदि के त्याग की प्रेरणा हमें उत्तम संयम धर्म देता है ।
(7) उत्तम तप धर्म-
आत्मा की अभिव्यक्ति ही परमात्मा की उपलब्धि है । स्वर्ण पाषाण को अग्नि में तपाया जाता है तो उसकी कालिमा गलाकर स्वर्ण का शुद्ध रूप निखर जाता है ! वह हमारे गले का हार बन जाता है । इसी प्रकार जो व्यक्ति तप अनुष्ठान करता है उसकी आत्मा कुन्दन बन जाती है यही उत्तम तप धर्म है ।
(8) उत्तम त्याग धर्म-
धन ही जिनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य है वे सारे जीवन धन संग्रह करते रहते है । और जीवन के अन्त में सब कुछ यही छोड़कर चले जाते है । व्यक्ति कितना ही धनवान हो यदि वह अपनी सम्पत्ति का सद्उपयोग करना नही जानता, उससे अभागा कोई नही है । कंजूसी कंगाली की पहचान है । उत्तम त्याग धर्म हमे दान देने की प्रेरणा देता है । हमे जीवन में दान करने की आदत डालना चाहिये ।
(9) उत्तम आकिन्चन्य धर्म –
जब तक मन पर क्रोध, लोभ, मोह के पत्रो का बोझ है तब तक आत्म कल्याण की चेतना जागृत नहीं होगी । उक्त चेतना को जाग्रत करने बाहर एवम् अन्दर से हल्का होना जरूरी है । इसी का नाम ही आकिन्चन्य अर्थात उत्तम आकिन्चन्य धर्म है ।
(10) उत्तम ब्रम्हचर्य धर्म
विश्व के समस्त धर्मो में ब्रम्हचर्य को एक पावन और पवित्र धर्म माना गया है । यह समस्त साधनाओं का मूल आधार है । ब्रम्हचर्य को अपनाये बिना आत्मा की उपलब्धि असंभव है । ब्रम्ह का अर्थ है आत्मा, आत्मा की उपलब्धि के लिये किये जाने बाला आचरण ब्रम्हचर्य है ब्रम्हचार का अर्थ है ब्रम्ह यानि ईश्वर के बताये अनुसार आचरण करने वाला और भ्रमचारी का अर्थ है भ्रम में जीने बाला भ्रम टूटे बिना ब्रम्ह को पाना संभव नहीं है । यही उत्तम ब्रम्हचर्य है ।
नोट लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवम् भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष है ।

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