Saturday, November 23, 2024

सौ बेटियों की मां किन्नर नीतू!

साधना सोलंकी ‘राजस्थानी’

देह से किन्नर कहलाती हैं वे…
नहीं पता कहाँ से आई
कौन मां बाप थे…
नहीं पता कैसे पहुंच गई
भरतपुर की सरजमीं पर
और निभाने लगी अपना धर्म
घर घर घूमती थीं
किन्नर साथियों के संग
देती थीं बधाइयां
ताली पीट पीट कर
खुशी से लगाती ठुमके
कि जल जाए चूल्हा
मिल जाए दो वक्त की रोटी!
अजब टोली थी
कैसी ठिठोली थी
खून का रिश्ता नहीं किसीसे
पर मौंसी मुंह बोली थी!
किन्नर जीवन जीते
खयाल आता…
यह जीना भी कोई जीना है!
यह तो दर्द ए गम को पीना है!
ममता का सुख मैं भी जानू
समाज की बेटियों को अपना बनालूं!
सौ रुपया कमाती हूं..
अस्सी उनको दे डालूं!
बस जाएं उनके घर..
ना हो कोई दरबदर
और… मौंसी हर बरस
सजाती है मंडप
धर्म और जांत पांत से परे
सात फेरे के मंत्र गूंजते हैं
तो निकाह कुबूल की ध्वनि भी
विदा के वक्त भर आती हैं
किन्नर मौंसी की आंखें
गले लग जाती हैं बेटियां
तू बाबुल तो तू ही है मां!
बांचना तुम भी कभी
किन्नर जीवन की पाती
और….
उसकी आंखो से ले आना
अपनी आंखो में
थोड़ी सी नमी
कहानी अनकही!

- Advertisement -spot_img

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Latest article