मन की शुद्धि सिखाता है उत्तम तप धर्म
-डॉ. सुनील जैन संचय, ललितपुर
आज दसलक्षण महापर्व का सातवां दिन -उत्तम तप धर्म का है। कर्मों के क्षय के लिये जो तपा जाता है , उसे तप कहते हैं। ‘इच्छा निरोधः तपः’ अर्थात् इच्छाओं को रोकना या जीतना ही तप है।तप के सच्चे स्वरूप को समझकर अपनी इच्छाओं का निरोध कर अपने जीवन को सम्यक तप से सुशोभित करें।जिस प्रकार अग्नि में तप कर सोने के सभी दोष नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार तपस्या से आत्मा के सभी कर्मों का नाश हो जाता है और वह अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करने लगती है।
बारस अणुवेक्खा” ग्रंथ में तप का स्वरूप बताते हुये आचार्य कहते हैं –
“पाँचों इन्द्रियों के विषयों तथा चारों कषायों को रोककर शुभध्यान की प्राप्ति के लिये जो अपनी आत्मा का विचार करता है , उसके नियम से तप होता है।”
धवला जी में आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं – तिण्णं रयणाणमाविब्भावट्टमिच्छाणिरोहो।
अर्थात् तीनों रत्नों को प्रगट करने के लिये इच्छाओं के निरोध को तप कहते हैं।
मन की शुद्धि सिखाता है- उत्तम तप धर्म। मलीन वृत्तियों को दूर करने के लिए जो बल चाहिए, उसके लिए तपस्या करना।तप का मतलब सिर्फ उपवास, भोजन नहीं करना सिर्फ इतना ही नहीं है बल्कि तप का असली मतलब है कि इन सब क्रिया के साथ अपनी इच्छाओं और ख्वाहिशों को वश में रखना। तप का प्रयोजन है मन की शुद्धि! मन की शुद्धि के बिना काया को तपाना या क्षीण करना व्यर्थ है। तप से ही आध्यात्म की यात्रा का ओंकार होता है।
अपनी इच्छाओं को वश में रखना ही सबसे बड़ा तप है।
जिन भावों से मोह-राग-द्वेष रूपी मैल और शुद्ध ज्ञान दर्शन मय आत्मा भिन्न-भिन्न हो जाये वही सच्चा तप है। एक मात्र तप ही वह कारण है जो कर्म रूपी शिखर को भेदने में समर्थ हैं।
तप के भेद-अंतरंग और बहिरंग के भेद से तप के बारह भेद हैं।
अंतरंग तप : प्रायश्चित, विनय , वैयावृत्य , स्वाध्याय , व्युत्सर्ग और ध्यान।
बहिरंग तप : अनशन , अवमौदर्य , वृत्ति परिसंख्यान , रसपरित्याग , विविक्त शय्यासन , कायक्लेश।
जैन दर्शन कहता है इच्छाएं आज तक कभी भी किसी की पूरी नहीं हुई ।जब तक हम इच्छाओं के दास हैं तब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकते ।
सम्यक तप ही दोषों का परिमार्जन करता है , इसी से आचार की विशुद्धता और ज्ञान सम्यक होता है। परिणामों में निर्मलता आती है, संसार के दुखों से छुटकारा मिलता है। और सच्चे सुख की प्राप्ति होती है, तथा कालांतर में सिद्ध दशा की प्राप्ति में भी सम्यक तप ही कारणभूत है।
पद्मपुराण में रविषेण स्वामी ने लिखा है-
रावण ने जितना तप विद्या सिद्धि के लिए किया यदि उतना तप आत्म शुद्धि को करता तो उसी भव से मोक्ष चला जाता। देवता कितना भी चाहे पर तप नही कर सकते देवताओ को तपस्या तो वज्र के समान है 84लाख योनियों में यदि तप का फल किसी को प्राप्त होता है तो मनुष्य को ही होता बाकी पर्याय में नही।
मात्र देह की क्रिया का नाम तप नहीं है अपितु आत्मा में उत्तरोत्तर लीनता ही वास्तविक ‘निश्चय तप’ है। ये बाह्य तप तो उसके साथ होने से ‘व्यवहार तप’ नाम पा जाते हैं। दसलक्षण पूजन में लिखा है-
अति महादुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरें।
नर-भव अनूपम कनक-घर पर, मणिमयी-कलसा धरें।।
आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज ने लिखा है-तन मिला तो तप करो करो कर्म का नाश
रवि शशि से भी तेज है तुझमे दिव्य प्रकाश।