भागलपुर। परम पूज्य मुनि श्री 108 विशल्य सागर जी महाराज दिगंबर जैन मंदिर,भागलपुर में विराजमान हैं। दस लक्षण पर्व के तीसरे दिन उत्तम आर्जव धर्म पर मंगल देशना देते हुए आर्जव धर्म अर्थात ‘मायाचारी’ का अभाव। वह मायाचारी का अभाव जब सम्यकदर्शन के साथ होता है, तब उत्तम आर्जव धर्म नाम पाता है। ठगी को लोक में चालाकी माना जाता है, परंतु धर्म में ऐसी चालाकी नहीं चलती। यदि धर्म में आगे बढ़ना है तो सरल व्यक्तित्व का होना ज़रूरी है। ऋजोर्भावः इति आर्जवः‘‘ – अर्थात्-आत्मा का स्वभाव ही सरल स्वभाव है, इसलिये प्रत्येक प्राणी को सरल स्वभाव रखना चाहियें। यह आत्मा अपने सरल स्वभाव से च्युत होकर पर-स्वभाव में रमते हुए कुटिलता से युक्त ऐसे नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों में भ्रमण करते हुए टेढ़ेपन को प्राप्त हुआ हैं। इसके इस स्वभाव के निमित्ति से यह आत्मा दिखावट, बनावट, छल, कपट और पापाचार इत्यादि को प्राप्त होकर आप दूसरों के द्वारा ठगाने वाला हुआ है। जब यह आत्मा मन, वचन, काय से सम्पूर्ण पर-वस्तु से विरक्त होकर अपने आप में रत होता है तब यह जीवात्मा अपने सरल स्वभाव को प्राप्त होकर पर-वस्तु से भिन्न माना जाता है तभी यह सुखी हो जाता है। मायाचार से युक्त पुरुष प्रायः ऊपर से हितमित वचन बोलता है और सौम्य आकृति बनता है। अपने आचरणों से लोगों को विश्वास उत्पन्न करता है। अपने प्रयोजन साधने के लिये विपक्षी की हाँ में हाँ मिला देता है किंतु अवसर पाते ही वह मनमानी घात कर बैठता है। मायावी पुरुष का स्वभाव बगुले के समान बहुत कुछ मिलता जुलता है। अर्थात् जैसे बगुला पानी में एक पाँव से खड़े होकर नाशादृष्टि लगाता है और मछली उसे साधु समझ कर ज्यों ही उसके पास जाती है त्यों ही वह छद्मवेषी बगुला झट से उन मछलियों को खा जाता है। आर्जव धर्म मन, को सुमेरु पर्वत की भांति अडिग दृढ़, मजबूत बनाता है। मायाचारी तभी की जाती है जब किसी के चंगुल से छूटना हो या किसी को चंगुल में फसाना हो। मायाचारी करने बाला नियम से तिर्यंचगति में जाता है यहां की थोड़ी सी मायाचारी तिर्यंचगति में अनंत दुखों को प्राप्त कराती है इसलिए मायारी छोड़ मैन में सरलता को धारण करो ताकि जीवन का उद्धार हो सके। मन, वचन, काय की सरलता हमे सीधे मोक्ष ले जाती है। आत्मा को पवित्र बनाती है।
प्रेषक विशाल पाटनी