Sunday, November 24, 2024

आर्जव धर्म कथनी और करनी एक हो की सीख देता है

डॉ सुनील जैन संचय, ललितपुर

आर्जव धर्म का अर्थ है— मन, वाणी और कर्म की पवित्रता और यह पवित्रता ही किसी व्यक्ति को महान बनाती है। आर्जव धर्म — योगस्यावक्रता आर्जव। मन, वचन, काय लक्षण योग की सरलता व कुटिलता का अभाव उत्तम आर्जव धर्म हैं। जो विचार हृदय में स्थित हैं ,वही वचन में कहता है और वही बाहर फलता है, यह आर्जव धर्म हैं। डोरी के दो छोर पकड़ कर खींचने से वह सरल होती है, उसी तरह मन में से कपट दूर करने पर वह सरल होता है अर्थात मन की सरलता का नाम आर्जव हैं।
महापुरुष जो कहते हैं, वही करते हैं, किन्तु कुटिल पुरुषों की कथनी और करनी में अन्तर होता है। यह मायाचार है। शास्त्रों में इसे त्याज्य बताया गया है। आज सर्वत्र मायाचार या छल—कपट का साम्राज्य है। आज धर्म के क्षेत्र में भी मायाचार देखा जा सकता है। इस धर्म का ध्येय है कि हम सब को सरल स्वभाव रखना चाहिए, मायाचारी त्यागना चाहिए।
क्षमा और मार्दव के समान ही आर्जव भी आत्मा का स्वभाव है। आर्जवस्वभावी आत्मा के आश्रय से आत्मा में छल-कपट मायाचार के अभावरूप शांति-स्वरूप जो पर्याय प्रकट होती है, उसे भी आार्जव कहते हैं। यद्यपि आत्मा आर्जवस्वभावी है, तथापि अनादि से ही आत्मा में आर्जव के अभावरूप मायाकषायरूप पर्याय ही प्रकट से विद्यमान हैं
’ऋजोर्भावः आर्जवम्’ ऋजुता अर्थात् सरलता का नाम आर्जव है। आर्जव के साथ लगा ’उत्तम’ शब्द सम्यग्दर्शन की सत्ता का सूचक है। सम्यग्दर्शन के साथ होने वाली सरलात ही उत्तमआर्जव धर्म हैं उत्तमआर्जव अर्थात् सम्यग्दर्शन सहित वीतरागी सरलता।
आर्जवधर्म की विरोधी मायाकषाय है। मायाकषाय के कारण आत्मा में स्वभावगत सरलता न रहकर कुटिलता उत्पन्न हो जाती है। मायाचाीर का व्यवहार सहज एवं सरल नहीं होता। वह सोचता कुछ है, बोलता कुछ है और करता कुछ है। उसके मन-वचन-काय में एकरूपता नहीं रहती। वह अपने कार्य की सिद्धि छल-कपट के द्वारा ही करना चाहता है।
आर्जव के विपरित मायाचारी होती है। छल-कपट करना मायाचारी कहलाता है। यदि अपने जीवन में आर्जव को लाना चाहते हैं तो अपने छल-कपट अर्थात मायाचारी का त्याग करना होगा। इस धर्म का ध्येय है कि हम सब को सरल स्वभाव रखना चाहिए, मायाचारी त्यागना चाहिए। जैसा अपने मन में विचार किया जाये, वैसा ही दूसरों से कहा जाये और वैसा ही कार्य किया जाये। इस प्रकार से मन—वचन—काय की सरल प्रवृत्ति का नाम ही आर्जव है।जहाँ पर कुटिल परिणाम का त्याग कर दिया जाता है वहीं पर आर्जव धर्म प्रगट होता है।
आर्जव धर्म का अर्थ है— मन, वाणी और कर्म की पवित्रता और यह पवित्रता ही व्यक्ति को महान बनाती है। महापुरुष जो कहते हैं, वही करते हैं, किन्तु कुटिल पुरुषों की कथनी और करनी में अन्तर होता है। यह मायाचार है। शास्त्रों में इसे त्याज्य बताया गया है। आज सर्वत्र मायाचार या छल—कपट का साम्राज्य है।
आजकल सभ्यता के नाम पर भी बहुत – सा मायाचार चलता है ,बिना लाग-लपेट के कहीं गई सच्ची बात तो लोग सुनना भी पसंद नहीं करते। यही भी एक कारण है कि लोग अपने भाव सीधे रूप में प्रकट न करे एड़े-टेड़े रूप में व्यक्त करते हैं। सभ्यता के विकास ने आदमी को बहुत-कुछ मिठबोला बना दिया है। आज के आदमी के लिए ऊपर से चिकनी-चुपडी बातें करना और अन्दर से काट करना एक साधारण-सी बात हो गई है। वह यह नहीं समझता कि यह मायाचारी दूसरों के लिए ही नहीं, स्वयं के लिए भी बहुत खतरनाक साबित हो सकती है, उसके सुख-चैन को भंग कर सकती है। भंग क्या कर सकती है, किए रहती है।
जैनाचार्य कहते हैं कि -‘योगस्यावक्रता आर्जवम्’ । मन—वचन—काय की सरलता का नाम आर्जव है। ऋजु अर्थात् सरलता का भाव आर्जव है। अर्थात् मन—वचन—काय को कुटिल नहीं करना, इस मायाचारी से अनंतों कष्टों को देने वाली तिर्यंच योनि मिलती है।
जो बात मन में है, उसे ही वचन द्वारा प्रकट करना आर्जव है और उससे विरुद्ध मायाचार है, अधम है। अपनी मन: स्थिति को व्यक्त करना शुभ है, मन की बात छिपाकर बनावटी बात मुंह से कहना अशुभ का संकेत है। धर्म में प्रवेश करने के लिए इस मायाचार से मुक्त होना आवश्यक है।
जो साधक मन में कुटिल विचार नहीं रखता, वचन से कुटिल बात नहीं कहता, शरीर से भी कुटिल चेष्टा नहीं करता तथा अपना दोष नहीं छिपाता, वही उत्तम आर्जव धर्म का पालक है। जितने सरल हम अपने जीवन में होते जाएंगे, उतने ही हम ईश्वरत्व के समीप होते जाएंगे। कोई भी व्यक्ति परमात्मा का भक्त तब तक नहीं हो सकता, जब तक उसमें मायाचार का अंश भी विद्यमान है। मायाचारी अपने कपट व्यवहार को कितना ही छिपाए, देर-सबेर वह प्रकट होता ही है। इसीलिए कहा गया है – नहीं छिपाए से छिपे, माया ऐसी आग, रुई लपेटी आग को, ढांके नहीं वैराग। आज का मानव बहुरूपिया है। उसका स्वभाव जटिलताओं का केंद्र बन गया है। रिश्तेदारों के साथ, अतिथियों तथा अड़ोस-पड़ोस में बसने वालों के साथ -हर किसी के साथ और हर स्थान पर वह छल से पेश आता है। यहां तक कि भगवान के आगे भी वह अपनी मायाचारी बुद्धि का कमाल दिखाए बगैर नहीं रहता।
सभी को सरल स्वभाव रखना चाहिए, कपट को त्याग करना चाहिए। कपट के भ्रम में जीना दुखी होने का मूल कारण है।
उत्तम आर्जव धर्म हमें सिखाता है कि मोह-माया, बुरे काम सब छोड़ -छाड़ कर सरल स्वभाव के साथ परम आनंद मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

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