डॉ. सुनील जैन संचय, ललितपुर
दसलक्षण महापर्व के क्रम में दूसरा है “मार्दव धर्म” और चार कषायों के क्रम में दूसरी है “मान कषाय”।
मृदुभाव आत्मा का स्वभाव हे, मृदुता आत्मा के सरल परिणाम को कहते हैं। जैसे कि-
मृदुत्वं सर्व भूतेषु कार्य जीवेन सर्वदा।
काठिन्यं त्यज्यते नित्यं धर्म बुद्धि विजानता।।
जो जीव धर्म बुद्धि को जानते हैं, ऐसे जीवों को उचित है कि समस्त जीवों में हमेशा मृदुभाव अर्थात् सरल भाव रखना चाहिए, कठोर भाव का त्याग करना चाहिए।
मान के अभाव को मार्दव धर्म कहते हैं। सबसे विनम्र भाव से पेश आएं, सब प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखें । क्योंकि सभी प्राणियों को जीवन जीने का अधिकार है। मृदु परिणामी व्यक्ति कभी किसी का तिरस्कार नहीं करता और यह सृष्टि का नियम है कि यहाँ दूसरों का आदर देने वाला ही स्वयं आदर का पात्र बन सकता है। जैसे नशे में धुत व्यक्ति को कोई समझा नहीं सकता औरों की तो बात ही क्या उसके सगे-सम्बन्धी जन भी उसे समझाने में असमर्थ हैं, उसी प्रकार अभिमानी व्यक्ति को कोई समझा नहीं सकता । दसलक्षण पर्व की पूजन में पं. द्यानतराय जीनिम्न पंक्तियों में स्पष्ट कर रहे हैं –
मान महा-विष-रूप, करहि नीच गति जगत में।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा।।
उत्तम मार्दव गुण मन माना, मान करन को कौन ठिकाना?
बस्यो निगोद माँहि तें आया, दमड़ी रूंकन भाग बिकया।।
रूकन बिकाया भाग वशतें, देव इक-इंद्री भया।
उत्तम मुआ चांडाल हूवा, भूप कीड़ों में गया।।
जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करे जल-बुदबुदा।
करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावें उदा।।
अर्थात कविवर कहते हैं, मान महाविष रूप (हलाहल ज़हर) के समान है तथा नीच गति (नरक,तिर्यंच) का कारण है। कोमलता अर्थात मार्दव अमृत के समान है और उसको धारण करने वाला प्राणी निरंतर सुख ही पाता है। आगे,उत्तम मार्दव गुण मन में लाना चाहिये क्योंकि मान करने के लिए जगत में कोई भी वस्तु नहीं है। अनादिकाल से यह जीव (मैं) निगोद में रहा तथा वनस्पति-कायिक में जन्म लेने पर दमड़ी (कौड़ियों) के भाव बिका।
मार्दव धर्म संसार का नाश करने वाला है, मान का मर्दन करने वाला है, दया धर्म का मूल है, सर्वजीवों का हितकारक है और गुण गणों में सारभूत है। इस मार्दव धर्म से ही सकल व्रत और संयम सफल होते हैं। मार्दव धर्म मान कषाय को दूर करता है, मार्दव धर्म पाँच इन्द्रिय और मन का निग्रह करता है।
मद के 8 प्रकार आचार्यों ने बताएं हैं –
ज्ञानं पूजां कुलं जाति, वलमर्द्वि तपो वपुः ।
अष्ठा वाश्रित्य मानित्वं, स्मयमा दुर्गतस्मया: ।।
1- ज्ञान का मद, 2 – पूजा/प्रतिष्ठा/ऐश्वर्य का मद, 3 – कुल का मद, 4 – जाति का मद, 5 – बल का मद, 6- ऋद्धि का मद, 7 – तप का मद और 8 – शरीर/रूप का मद। ये आठ मद , मान व्यक्ति को गर्त की ओर ले जाते हैं। जाति आदि मदों के आवेशवश होने वाले अभिमान का अभाव करना मार्दव है। मार्दव का अर्थ है मान का नाश करना। ‘‘मृदु का भाव मार्दव है, यह मार्दव मानशत्रु का मर्दन करने वाला है, यह आठ प्रकार के मद से रहित है और चार प्रकार की विनय से संयुक्त है।
मानव की सोई हुई अन्तः चेतना को जागृत करने, आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार, सामाजिक सद्भावना एवं सर्व धर्म समभाव के कथन को बल प्रदान करने के लिए पर्यूषण पर्व मनाया जाता है। साथ ही यह पर्व सिखाता है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि की प्राप्ति में ज्ञान व भक्ति के साथ सद्भावना का होना भी अनिवार्य है। जैन धर्म में दस दिवसीय पर्युषण पर्व एक ऐसा पर्व है जो उत्तम क्षमा से प्रारंभ होता है और क्षमा वाणी पर ही उसका समापन होता है। क्षमा वाणी शब्द का सीधा अर्थ है कि व्यक्ति और उसकी वाणी में क्रोध, बैर, अभिमान, कपट व लोभ न हो।
मार्दव धर्म आप लोगों से पूछ रहा है कि हम अपने से नीचे वालों के प्रति कितना विनम्र हुए। दौलत को नहीं दिलों को भी जीतना सीखो। इस अहंकार से बचने के लिए जीवन में सरलता और सहजता को स्वीकार करो। ‘‘मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में। कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा।। अर्थात् मान आचार-विचार-रूपी बादलों को नष्ट करने के लिए वायु के समान है, विनय-रूपी जीवन का नाश करने के लिए विषधर सर्प के तुल्य है और कीर्ति रूपी कमलिनी को उखाड़ फेंकने के लिए गजराज के सदृश है।