हीरा चन्द बैद
खण्डेलवाल दिगम्बर जैन श्योजीराम जी पाटनी जयपुर राजदरबार में दीवान थे, इन्हीं के पुत्र अमर चन्द भी जयपुर राजदरबार में 32 वर्ष तक प्रतिष्ठित दीवान पद पर सेवारत रहे। अपने पिता समान ही अमर चन्द जी भी कुशल प्रशासक व वीर होने से राजा के विशेष कृपा पात्र थे इसीलिए इन्हें अनेक बार दरबार में द्वेषता का शिकार होना पड़ा, लेकिन अमर चन्द जी अपने दया व अहिंसा धर्म के अवलम्बन से सदैव ही अपने ऊपर आये संकटों पर विजय प्राप्त करते रहे।
जयपुर के नागरिक दीवान अमर चन्द जी के प्रति विशेष स्नेह व आदर रखते थे।
सदैव की भांति एक बार दरबार लग रहा था, जयपुर नरेश सिंहासन पर बिराजमान थे।
सामने दीवान अमर चन्द जी व अन्य सामंत और दरबारी गण बैठे थे। जयपुर नरेश ने दरबार को सम्बोधित करते हुए कहा कि हम आवश्यक कार्य से बाहर जा रहे हैं और हमारे नये मेहमान शेर (सिंह) की देखभाल का जिम्मा किसी योग्य व्यक्ति के हाथ में देना चाहते हैं अतः आप लोग ही बताईए कि यह कार्य किसे सम्हलाया जाए जिससे शेर के लिए समय से मांसाहार की उचित व्यवस्था हो जाये।
यह बात सुनकर एक सामंत बोला हुजूर अमर चन्द जी से अच्छी व्यवस्था कोई नहीं कर सकता, राजा साहब ने कहा अमर चन्द जी जैन है वे मांस के हाथ लगाना तो दूर उसे देख भी नहीं सकते।सामंत ने अमर चन्द जी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा – हुजूर! सब की राय है कि अमर चन्द जी साहब इस काम को बखूबी कर पायेंगे।
यह सुनकर अमर चन्द जी ने कहा, हुजूर! क्या यह जरूरी है कि शेर को मांस ही खिलाया जाये।
राजा साहब अमर चन्द जी से बोले, दीवान जी शेर मांस नहीं खायेगा तो क्या जलेबी खायेगा।
इस बात पर उपस्थित दरबारी जोर से हंसने लगे।
अमर चन्द जी ने कहा हुजूर! आप हुक्म करें तो मैं शेर को जलेबी खिला सकता हूं।
अमर चन्द जी की इस बात पर पुनः सब हंसने लगते हैं।
एक सामंत ने कहा हुजूर! अब तो शेर जलेबी व गधे तम्बाकू भी खाने लगेंगे।
एक बार फिर दरबार में हंसी गूंज उठती है।
राजा साहब ने कहा, देखो दीवान जी, आपकी बात पर सब लोग हंस रहे हैं।
अमर चन्द जी सहज भाव से बोले कोई बात नहीं, हुजूर! आज व्यंग्य में हंस रहे हैं सम्भव है कि कल आश्चर्य से हंसने लगे। आज मजाक उडा रहे हैं हो सकता है कल ये ही लोग दांतों तले अंगुली दबाते नजर आए।।
एक सामंत बोला, हुजूर! अबकी बार दीवान अमर चन्द जी का यह चमत्कार भी देखने का अवसर अवश्य ही दीजिए।
दूसरा सामंत बोला हम सब की यही इच्छा है कि
जलेबी शेर खायेगा, तमाशा हम भी देखेंगे
पड़ेगा उल्टा या सीधा, वह पाशा हम भी देखेंगे।
राजा साहब ने गंभीर स्वर में कहा कि बड़ी अस्वाभाविक बात है दीवान जी कि शेर जलेबियां खाएं, मैं तो इस विषय में आप से आग्रह नहीं करता, यदि स्वेच्छा से यह कार्य अपने हाथ में ले रहें हैं तो आपकी इच्छा।
अमर चन्द जी बोले, हुजूर! आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें। महाराज, मेरे आत्म विश्वास पर भरोसा करें।
राजा साहब ने कहा दीवान साहब फिर जैसी आपकी इच्छा।
यह कह कर राजा साहब ने दरबार समाप्ति की घोषणा कर दी।
अगले दिन दीवान अमर चन्द जी ने शेर के पिंजरे के पहरेदार को कहा आज से मांस के स्थान पर जलेबी से भरीं थाली शेर के पिंजरे में सरका देना।
एक दिन हो गया, दो दिन हो गए, तीन दिन हो गए लेकिन शेर ने जलेबी नहीं खाई वह भूख से आक्रामक हो गया।
तीसरे दिन अमर चन्द जी के घर जाकर पहरेदार कहता है, हुजूर! तीन दिन हो गये रोज जलेबी से भरीं थाली पिंजरे में रख दी गई लेकिन खाना तो दूर शेर थाली तक उठकर भी नहीं आया।
दीवान अमर चन्द जी ने कहा अच्छा! कल हम स्वयं शेर के पिंजरे में प्रवेश करके शेर को जलेबियां खिलाएंगे, पहरेदार जी अब आप जा सकतें हैं।
वापस जाते समय पहरेदार को मार्ग में तीन सामंत मिलते हैं एक ने पहरेदार से पूछा कहो भाई कहां हो आये? पहरेदार ने उत्तर दिया अमर चन्द जी के पास गया था शेर की खबर देने।
दूसरा सामंत बोला क्यों क्या हुआ शेर को?
पहरेदार ने कहा होना क्या था बिचारा शेर तीन दिन से भूखो मर रहा है।
सामंत बोला भूखों मर रहा है- क्या जलेबियां नहीं खाई?
पहरेदार ने उपेक्षित भाव से कहा अरे साहब! क्या शेर भी जलेबी खाता है?, यह तो हमारे दीवान साहब की हठ है।
पहले सामंत ने कहा तब तो अब की बार सारी हेकड़ी निकल जाएगी दीवान साहब की, बड़ी अकड़ से बात करते हैं दरबार में,
कोई भोले-भाले हिरण थोड़े ही है जो दीवान जी की आवाज पर रूक गये , अब तो जंगल के राजा शेर से पाला पड़ा है।
पहरेदार बोला- परन्तु दीवान साहब ने कहा है कि कल वे स्वयं पिंजरे में प्रवेश करके शेर को अपने हाथ से जलेबी खिलायेगें।
यह खबर समूचे जयपुर शहर में आग की तरह फैल गई।
अगले दिन शहरवासियों का रेला का रेला आतिश की ओर चला जा रहा था। वर्तमान के त्रिपोलिया बाजार में सरगासूली के पीछे स्थित आतिश मार्केट (महारानी गायत्री देवी मार्केट) आतिश में जयपुर राज्य के घोड़े बंधते थे।
आतिश के विशाल चोक में लोहे के मजबूत सरियों से बना पिंजरा रखा हुआ था जिसमें भयानक शेर बंद था। चारों और दर्शकों का भारी जनसमूह एकत्रित था, सामने राजदरबार के उच्च अधिकारी बैठें थे।
सहसा दीवान अमर चन्द जी साहब हाथों में जलेबी की थाली लिए आतिश में प्रवेश करते हैं, शेर के पिंजरे के पास खड़े होकर दर्शकों का अभिवादन करते हुए सम्बोधित करते हुए कहतें हैं प्रिय नागरिक बन्धुओं, आज मैं स्वेच्छा से अहिंसा का शस्त्र लेकर हिंसा से मुकाबला करने जा रहा हूं
कदाचित मैं इस प्रयास में अपनी जान से हाथ धो बैठूं तो उसका दोषी अन्य किसी को न समझा जायें।
अब दीवान साहब के कहने पर पहरेदार पिंजरे की खिड़की खोलता है, अमर चन्द जी के पिंजरे में प्रवेश करते ही खिड़की बन्द कर दी जाती है।
अमर चन्द जी को पिंजरे में देख शेर गुर्राता हुआ दहाड़ता है जिसे सुनकर दर्शकों के दिल दहल जातें हैं, समूचे आतिश में सन्नाटा पसर जाता है जैसे सब की सांसें रूक गई हो।
अमर चन्द जी शेर को सम्बोधित करते हुए बहुत विनय भाव से कहते हैं शांत.. वनराज शांत..
शेर शांत व नरम हो जाता है।
हाथ में रखी जलेबी की थाली को शेर की तरफ़ आगे करते हुए अमर चन्द जी शेर से निवेदन करते हे वनराज! ये जलेबियां आप के लिए है इन्हें खा कर अपनी क्षुधा शान्त कर लीजिए,
शेर शांत भाव से सामने खड़े अमर चन्द जी की और देखता है,अमर चन्द जी पुनः विनय भाव से कहते हैं, हे वनराज! यदि मांस ही खाना है तो – लो – मैं हाज़िर हूं, मुझे खाकर अपनी क्षुधा मिटा लो, अब तो हिंसक व मांसाहारी वनराज बिल्कुल शांत मुद्रा में अमर चन्द जी के आत्मतेज के आगे मस्तक झुका कर जलेबियां खा लेता है , दीवान अमर चन्द जी खाली थाली लेकर पिंजरे से बाहर आते हैं ,
दर्शकगण अहिंसा धर्म की जय के नारे लगाते हैं। दीवान अमर चन्द जी जिन्दाबाद के नारों से समूचा आतिश गूंज उठता है। अहिंसा व शाकाहार की बहुत बहुत प्रसंशा होती है।
इस प्रकार दीवान अमर चन्द जी पर भक्तामर स्तोत्र के 39 वें काव्य की अन्तिम दो पंक्तियां पूर्ण रूप से चरितार्थ हुई।
बद्धक्रम: क्रमगतं हरिणाधिपोपि,
नाक्रमति क्रमयुगाचल-संश्रितं ते।।