Sunday, November 24, 2024

क्षमा भाव के लिए किसी कर्म की जरूरत नही वो तो हमे खुद करना है, वो तो हमारी आत्मा की पर्याय है: निर्यापक मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज

आगरा। निर्यापक मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ने श्री महावीर दिगंबर जैन इंटर कॉलेज के अमृत सुधा सभागार में धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा अपनी वाणी से जब जब स्वयं को गुणहीन, ज्ञानहीन की अनुभूति हो तो आराध्य मंत्र को पढ़ना,आराध्यगुरु का ध्यान करना अध्यात्म सबसे अच्छी दवा है हार्ट अटैक से बचने की,जिनको घबड़ाहट होती है,जिनका ब्रेन हेमरेज होता है, जिनका ब्लेड प्रेशर हाई होता है। यदि वो सही मन लगा करके अध्यात्म पढ़ ले तो घबड़ाहट नही हो सकती क्योंकि अध्यात्म हमे वो बिल पॉवर देता है, किससे घबड़ा रहा हूँ,कौन क्या मेरा बिगाड़ लेगा,मैं अविनाशी, शास्वत हूँ। ऐसी अनुभूति कभी आप करना अध्यात्म की बातों में पुण्य और पाप, शुभ-अशुभ कर्म में बहुत कुछ साहस आता है। इतना कष्ट होता है कि रोने का मन कर जाता है लेकिन आध्यात्म आते ही उन्ही कष्टों में चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। कष्ट नही गया, कष्ट तो वो ही रहता है। वह जो हमारे हाथ मे है वह बनो,वह करो। क्रोध हमारे हाथ में नही है क्षमा हमारे हाथ मे है। क्रोध करने के लिए हमे कर्म का उदय चाहिए। क्रोध करने के लिए सामने हमे नौकर्म चाहिए। लेकिन क्षमा भाव के लिए किसी कर्म की जरूरत नही वो तो हमे खुद करना है, वो तो हमारी आत्मा की पर्याय है, उसमे कर्म भी बीच मे नही आता। पाप करना है तो कर्म का उदय चाहिए बिना औदयिक भाव के पाप,बिना कर्म के होगा ही नही, तुम लाख उपाय करो। ये साधु मुझे पसंद है, ये साधु मुझे हितकारी दिख रहा है, ये साधु से मेरा कल्याण है, ये साधु की कृपा मेरे लिए बहुत शगुन दे रही है, ये साधु मुझे दुर्घटना,पाप,अशुभ से बचा लेगा, मुझे सच्चा मार्ग दिखा देगा, ऐसी प्रतीति जिस साधु के प्रति हो जाये बस उसी को गुरु मान लेना, इसका नाम गुरु है। गुरु तो भक्त के आधीन हो गया इसलिए समन्तभद्र महाराज कहते है तुम्हे गुरु नही बनना क्योंकि गुरु भक्त के आधीन है इसलिए तुम्हे साधु बनना है, कोई माने न माने तुम साधु थे, हो और रहोगे। साधुता किसी से खंडित नही होती। कितने साधु है जंगलों में दीक्षा ली तो साधु बनकर कल्याण कर गए। अपनी दृष्टि में तुम सच्चे साधु हो, तुम पूछो जिनवाणी माँ से क्या मैं सच्चे साधु हूँ। तुम पूछो दुनिया से तो हर व्यक्ति कहेगा तुम साधु तो हो लेकिन मेरे गुरु नही। साधु तो तीन कम नौ करोड़ होते है लेकिन गुरु एक होता है। गुरु वही है जिससे हमारा उपकार हुआ हो हमारी आँखे खुली हो। गुरु इष्ट होता है,साधु आराध्य होता है। इष्ट गुरु वो कहते है जिससे हमारा सिद्धि होती है, हम काम निपटता हो, हमारी समस्या का समाधान होता हो। हमे ज्ञान नही था गुरु ने दिया। गुरु मानना पड़ेगा हमे किसी न किसी को क्योंकि हमारे अंदर बहुत कमियाँ है ,असमर्थ है हम, कौन दिखायेगा रास्ता। जिसको तुम गुरु बनाओ उसको गुरु बनाने के पहले सोच लेना उसका भी कोई गुरु था कि नही या वो अनाथ था। जिस चाहे को गुरु मत बना लेना। सारे साधु गुरु नही है, गुरु का कोई स्वरूप देखने में शास्त्रो में नही आया। इष्ट गुरु और आराध्य गुरु। इनके आचार-विचार मुझे पसंद है बस वही तुम्हारे गुरु है। इष्ट गुरु वही है जिसने प्रत्यक्ष मेरे ऊपर उपकार किया हो, शिक्षा-दीक्षा आदि दी हो, उसी के निर्देशन में मेरी जिंदगी चलने वाली है,तीन कम नौ करोड़ साधुओं से मेरा काम चलने वाला नही है। इसलिए एक इष्ट गुरु बनाओ बाकी को आराध्य गुरु। बिना इष्ट गुरु के कल्याण हो जाएगा लेकिन बिना साधु बने बिना कल्याण नही होगा। धर्मसभा का संचालन मनोज जैन बाकलीवाल द्वारा किया गया| इस अवसर पर धर्मसभा में प्रदीप जैन पीएनसी, निर्मल मोठ्या,मनोज बाकलीवाल नीरज जैन जिनवाणी,पन्नालाल बैनाड़ा हीरालाल बैनाड़ा, जितेन्द्र कुमार जैन, जगदीश प्रसाद जैन,राजेश सेठी, जितेंद्र जैन,अमित जैन बॉबी,शैलेंद्र जैन,मीडिया प्रभारी शुभम जैन,शुभम जैन,सुमेरचन्द जैन,मुकेश जैन,अनिल जैन रईस,समकित जैन,अनिल जैन शास्त्री,दिलीप कुमार जैन,सचिन जैन, अंकेश जैन,सकल जैन समाज आदि उपस्थित थे l

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