दक्षिण भारत में जन्मे सन्त शान्ति सागर ने उत्तर भारत में दिगम्बरत्व की जगायी अलख
जैन धर्म के प्रथम दिगम्बर आचार्य युग प्रवर्तक श्री शांतिसागर जी महामुनिराज
(1872-1955)
“शांति के स्वरूप रूप, आतम अनूप भूप
जात रूप धार कियो, आतम उद्गार है।
हित मित भाषी प्रिय, धर्म के प्रकाशी हिय
पाप के विनाशी लिए, महाव्रत धार है।।”
दिगंबर जैन धर्म के 20वीं सदी में पहले आचार्य श्री 108 शान्ति सागर जी महाराज ने उत्तर भारत में पारंपरिक दिगम्बर प्रथाओं के शिक्षण और अभ्यास को पुनर्जीवित किया । देवप्पा (देवकीर्ति) स्वामी जी द्वारा उन्हें संघ में क्षुल्लक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया था। उन्होंने तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा के समक्ष अपनी ऐलक दीक्षा (धार्मिक प्रतिज्ञा) ली। लगभग 1920 में, शांतिसागर जी जैन धर्म के दिगंबर संप्रदाय के पूर्ण दिगम्बर मुनि बन गए। 1922 में, कर्नाटक के बेलगाम जिले के यरनाल गाँव में, उन्हें “शांति सागर जी” नाम दिया गया।
नाना के घर में हुआ जन्म
आचार्य शांति सागर का जन्म नाना के घर आषाढ़ कृष्णा 6, विक्रम संवत् 1929 सन् 1872 बुधवार की रात्रि में शुभ लक्षणों से युक्त बालक सातगौड़ा का दक्षिण भारत के यालागुडा गाँव (भोज), कर्नाटक में हुआ था। उनकें पिता का नाम भीमगौडा पाटिल और माता का नाम सत्यवती था। नौ वर्ष की आयु में इच्छा के विरुद्ध इनकी शादी कर दी गयी थी। जिनसे शादी करी गयी थी, उनकी 6 माह पश्चात ही मृत्यु हो गयी थी।
चारित्र चक्रवर्ती का अलंकरण
दिगम्बर साधु सन्त परम्परा में वर्तमान युग में अनेक तपस्वी, ज्ञानी ध्यानी सन्त हुए। उनमें आचार्य शान्तिसागरजी महाराज एक ऐसे प्रमुख साधु श्रेष्ठ तपस्वी रत्न हुए हैं, जिनकी अगाध विद्वता, कठोर तपश्चर्या, प्रगाढ़ धर्म श्रद्धा, आदर्श चरित्र और अनुपम त्याग ने धर्म की यथार्थ ज्योति प्रज्वलित की । आपके इन सब गुणों ने ही आपको चारित्र चक्रवर्ती का सम्मान दिया । आपने लुप्तप्राय, शिथिलाचारग्रस्त मुनि परम्परा का पुनरुद्धार कर उसे जीवन्त किया, यह निग्रन्थ श्रमण परम्परा आपकी ही कृपा से अनवरत रूप से आज तक प्रवाहमान है।
सल्लेखना में ही बनाया उत्तराधिकारी
जीवन पर्यन्त मुनिचर्या का निर्दोष पालन करते हुए 84 वर्ष की आयु में दृष्टि मंद होने के कारण सल्लेखना की भावना से आचार्य श्री सिद्धक्षेत्र कुंथलगिरी जी पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने 13 जून को विशाल धर्मसभा के मध्य आपने सल्लेखना धारण करने के विचारों को अभिव्यक्त किया। 15 अगस्त को महाराज ने आठ दिन की नियम-सल्लेखना का व्रत लिया जिसमें केवल पानी लेने की छूट रखी। 17 अगस्त को उन्होंने यम सल्लेखना या समाधिमरण की घोषणा की तथा 24 अगस्त को अपना आचार्य पद अपने प्रमुख शिष्य श्री 108 वीरसागर जी महाराज को प्रदान कर घोषणा पत्र लिखवाकर जयपुर (जहाँ मुनिराज विराजमान थे) पहुँचाया। आचार्य श्री ने 36 दिन की सल्लेखना में केवल 12 दिन जल ग्रहण किया।
युग प्रवर्तक की समाधि
18 सितम्बर 1955 को प्रातः 6.50 पर भाद्र शुक्ला दोज रविवार को ॐ सिद्धोऽहं का ध्यान करते हुए युगप्रवर्तक आचार्यं श्री शान्तिसागर जी ने नश्वर देह का त्याग कर दिया। संयम-पथ पर कदम रखते ही आपके जीवन में अनके उपसर्ग आये जिन्हें समता पूर्वक सहन करते हुए आपने शान्तिसागर नाम को सार्थक किया।
आलेख : पदम जैन बिलाला