Monday, November 25, 2024

हिन्दी की राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता चाहिये

विजय कुमार जैन राघौगढ़ म.प्र.
सर्वविदित है 14 सितंबर 1949 को हिन्दी भारत की राजभाषा घोषित की गई थी। और राजकाज के लिये पन्द्रह वर्ष तक अंग्रेजी को संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग करने की स्वीकृति दी गई थी, लेकिन तब से आज तक सात दशकों में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सम्मान नहीं मिला। संतोष का विषय है कि आधुनिक संचार क्रांति के नये युग में मीडिया, फिल्म जगत और उद्योग सभी क्षेत्रों में हमारी प्यारी भाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार को अपेक्षाकृत बल मिला है। दक्षिण भारतीय भी हिन्दी के प्रति अब ज्यादा दुराग्रह नहीं रखते, मगर खेद का विषय है कि आज तक किसी शासनकाल में हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने सक्रिय प्रयास नहीं हुए, हिन्दी दिवस के आयोजन मात्र औपचारिकता बन गये है। 14 सितंबर 1949 को भारत के संविधान में हिन्दी को भारतीय गणराज्य की राष्ट्र भाषा बनाने का निर्णय लिया गया और उसी दिन की स्मृति में संपूर्ण भारत में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। महाकवि मैथिली शरण गुप्त ने लिखा है “भगवान भारत वर्ष में गूंजे हमारी भारती”।भारती से महा कवि का आशय राष्ट्र भाषा हिन्दी से है। विश्व के 180 देशों में हिन्दी बोलने और समझने बाले नहीं है। पिछले 45 वर्षों के दौरान ग्यारह विश्व हिन्दी सम्मेलन विश्व के अनेक नगरों में आयोजित किये गये। हिन्दी लेखकों एवं कोटि के विद्वानों के आपसी सामन्जस्य से सौहार्द का वातावरण निर्मित हुआ है। विदेशों में हिन्दी का प्रचार प्रसार धीरे धीरे गति पकड़ रहा है। माँरीशस, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद, गुयाना, नीदरलैंड, दक्षिण अफ्रीका, नार्वे, वियतनाम, जापान, अमेरिका, जोहान्सबर्ग आदि देशों में ऐसी अनेक संस्थायें है जो हिन्दी साहित्यकारों की जयंती मनाते है। राम चरित मानस और गीता का पाठ करबाते है। होली और दीवाली के अवसर पर मिलन समारोह और कवि सम्मेलन आयोजित करते है।
मगर दुख का विषय है कि हम विदेशों में हिन्दी की इस हलचल को देख कर खुश तो हो लेते है किन्तु इस बात पर ध्यान नहीं देते कि, 10 से 14 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित पाँच दिवसीय प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मती इंदिरा गाँधी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में का जो संकल्प लिया था, वह अभी तक अधर में ही क्यों लटका हुआ है। चेकोस्लोवाकिया के विद्वान प्रो. ओदोलेन स्मेकल ने नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में कहा था देश की आत्मा को समझने के लिये उसकी भाषा को समझना चाहिए। मुझे जान पड़ता है कि भारत की आत्मा को समझने के लिये संस्कृत निष्ठ हिन्दी को जानना आवश्यक है, क्योंकि वह अपने मूल रूप में संस्कृत शब्दों को आत्मसात करने के फलस्वरूप समृद्धतम वर्तमान भारत की राष्ट्र भाषा है।
भारत के संविधान के भाग 17 अध्याय 1 में भारत की राजभाषा का उल्लेख है। संविधान में संकल्प 343 में स्पष्ट उल्लेख है कि भारत की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। भारतीय संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिये अंकों का रूप भारतीय अंकों का अन्तर्राष्ट्रीय रूप होगा। संविधान निर्माताओं ने बड़ी चालाकी से राजभाषा हिन्दी के साथ पन्द्रह वर्ष तक एक प्रावधान भी रखा था। हिन्दी राजभाषा के रूप में संवैधानिक रूप से तो प्रतिष्ठित हो गई पर हिन्दी को नौकरशाहों ने समय से ही अपनी भाषा और संस्कृति को भारत में स्थापित करने का कार्य प्रारंभ कर दिया था। अंग्रेजों ने अपना शासन उज्जवल करने सबसे पहले अंग्रेजी को शासन और प्रशासन की भाषा बनायी। भारत में आजादी के पहले और बाद भी प्रशासकों ने अंग्रेजी को ही अपनी कार्य भाषा बनाया और हिन्दी की उपेक्षा कर उसके लिये मुश्किलें पैदा की हैं। आचार्य विनोबा भावे ने कहा है हिन्दी रूपी सूरज की रोशनी के बिना सबेरे की कल्पना व्यर्थ है। मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्ज़त करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज्ज़त न हो, यह मै नहीं सह सकता। निश्चित ही यह गर्व का विषय है कि भारत के दक्षिण प्रदेशों तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल आदि में हिन्दी के व्यापक प्रचार प्रसार में साधु सन्तों, फकीरों तथा उत्तर भारत से आये मारबाड़ी, गुजराती और मुसलमान व्यापारियों ने सराहनीय हिन्दी सेवा की है। गुजरात में जन्मे महात्मा गाँधी और स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ साथ कवि दयाराम का योगदान हमेशा याद रहेगा। बंगाल के कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर, बंकिम चन्द्र चटर्जी और शरतचंद्र का हिन्दी के लिये योगदान महत्वपूर्ण रहा है। भाषा और संस्कृति एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। किसी भी देश का समाज जब किसी विदेशी भाषा की संस्कृति पर आशक्त होता है तो उसके आदर्श और नैतिक मूल्य बदल जाते है। अपनी भाषा की आत्मीयता, गहन अनुभूतियाँ और मानवीय संबंधों का आलोक किसी भी विदेशी भाषा से प्राप्त नहीं हो सकता। हमें विदेशी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करने का विरोधी नहीं होना चाहिये, किन्तु हमे किसी भी स्थिति में विदेशी भाषा की संस्कृति से प्रभावित नहीं होना चाहिये। राष्ट्रीय चेतना के यशस्वी कवि माखनलाल चतुर्वेदी के अनुसार ” हिन्दी हमारे देश की भाषा की प्रभावशाली विरासत है।” महात्मा गाँधी के अनुसार
“हिन्दी ही देश को एक सूत्र में बाँध सकती है।” पूर्व प्रधानमंत्री श्री मती इंदिरा गाँधी ने कहा है ” हिन्दी विश्व की महान भाषाओं में से एक है। वह करोड़ों लोगों की मातृभाषा है और करोड़ों लोग ऐसे है जो दूसरी भाषा के रूप में बोलते हैं। सुप्रसिद्ध दिगम्बर जैन संत आचार्य विद्या सागर जी हिन्दी को बढ़ावा देने राष्ट्र व्यापी अभियान रखकर जनजागृति ले रहे है। उन्होंने नारा दिया है इंडिया नहीं भारत बोलो।
आचार्य विद्या सागर जी की प्रेरणा से बालिका आवासीय विद्यालय जबलपुर, रामटेक,डोंगरगढ़, इंदौर में संचालित हैं,इसी प्रकार क्रांतिकारी जैन मुनि सुधासागर जी की प्रेरणा से श्रमण संस्कृति संस्थान द्वारा सांगानेर-जयपुर एवं खनियांधाना म.प्र. में बालक आवासीय विद्यालय संचालित हैं इनमें हिन्दी माध्यम से पढ़ाई होती है।
हिंदी की वर्तमान दशा को देखते हुए समाज को एक दिशा प्रदान करना आवश्यक है। हमे हिन्दी के संदर्भ में अपने घर से शुरुआत करना होगा। बच्चों को समझा कर मम्मी-डैडी, अंकल-आंटी कजिन शब्दों का प्रयोग बंद करना होगा। सामाजिक स्तर पर भी हिन्दी में परिवर्तन आवश्यक है। मोबाइल अथवा टेलीफोन पर हेलो शब्द का प्रयोग होता है, जबकि प्रारंभ होना चाहिए कहिये अथवा मैं बोल रहा हूँ आप कौंन? अथवा नमस्कार से प्रारंभ होना चाहिये। दुकानों, शिक्षण संस्थाओं, शासकीय कार्यालयों ने नाम पट हिन्दी में होना चाहिये। जलपान के समय टी के स्थान पर चाय, कोक के स्थान पर शरबत या शिकंजी कहना चाहिये। ब्रेक फास्ट के स्थान पर अल्पाहार, लंच एवं डिनर को मध्यान्ह भोजन, रात्री भोजन कहना चाहिये। शुभ विवाह के निमंत्रण पत्र पूर्णतः हिन्दी में छपबाने होंगे। कितनी हास्यास्पद बात है हम भगवान गणेश का चित्र लगाते है मंगल श्लोक हिन्दी में लिखते है, किन्तु शेष कार्यक्रम पति-पत्नी के नाम आदि अंग्रेजी में होते है। केवल अंग्रेजी पुत्रों की मानसिकता बदलनी है। इसके के लिये हमे पहल करनी होगी। हमे किसी से भी अंग्रेजी में पत्राचार अथवा वार्तालाप नही करनी चाहिये। हम सुधर जायेंगे तो अन्य लोग हमारा अनुशरण करने लगेंगे। हमे समझना पड़ेगा कि हिन्दी का अपमान देश का अपमान, देशवासियों का अपमान, भारत माता का अपमान है। उस दिन हिन्दी को लाने के लिये किसी क्रांति की आवश्यकता पड़ती है तो वह भी जनता ही करेगी। जब हम अंग्रेजी समझने से इंकार कर देंगे, जब हम अंग्रेजी पत्रों का उत्तर हिन्दी में देना प्रारंभ कर देंगे तो सामने बाला स्वयं ही हिन्दी अपनाने विवश हो जायेगा।
नोट:- लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष है।

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