मनोज नायक/बड़ौत। क्रोध, कृपणता, क्रूरता, कलह, अहं शासक के शासन का अंत कर देती है। दानशीलता, स्नेह, क्षमा, समन्वय, और एकता शासक के शासन को वर्धमान करती है। ऐसे ही कषाय की तीव्रता साधक के जीवन को नष्ट कर देती है एवं रंच मात्र भी कषाय संयमी की साधना एवं विशुद्ध परिणामों का घात कर देती है। कषाय कष्टकारी होती है एवं कषायी का अंत दुखद ही होता है। यह उद्गार बड़ोत उत्तर प्रदेश में चातुर्मास कर रहे दिगंबर जैन आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने प्रवचन सभा में प्रवचन देते हुए व्यक्त किये। कषाय की विस्तृत व्याख्या करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि कषाय युक्त जीव का यह भव एवं परभव दोनों ही दुखद होते हैं क्योंकि क्रोध ,कषाय सर्वनाशकारी होती है एवं भावों की, विशुद्धी का घात कर देती है। कषाय आत्म कल्याण में बाधक है। विकल्पों से शून्य दिगंबर प्रज्ञा का धारक, साधक कषाय को कालकूट जहर से भी अधिक घातक मानता है। सज्जन मानव सरलता, शांतता,और नैतिकता पूर्ण जीवन जीते हैं जबकि दुर्जन का जीवन कलुषता युक्त ही होता है। स्वभाव की प्रचंडता, वैर भाव, झगड़ालू व्रृत्ति, क्रूरता, दुष्टता, अडियल पन, कषायों की उग्रता, अनैतिकता, कषायशील दुर्जन की पहचान है। जो समझाने पर भी सत्याचरण न करें वही दुषटता का चिन्ह है। प्रवचन सभा में इंदौर के वरिष्ठ समाजसेवी आजाद जैन बीड़ी वाले, टी के वेद, डॉ जैनेंद्र जैन, पंडित विकास छाबड़ा, एवं डोषी जी आदि गणमान्य उपस्थित थे।