आगरा। किसी का सहयोग लेने से हमारा पुण्य घटता है, शक्तियाँ घटती है , घाटा होता है। किसी की वस्तु पर नियत खराब करने से हमारा पाप बढ़ता है, अशुभ बढ़ता है। किसी की वस्तु को छीनने में हम उस दशा में पहुँच जाते है जहाँ हम किसी कार्य करने लायक नही रहते। किसी की कोई वस्तु चाहे कोई भी हो, उसको दुःख देखकर छीनना, नियम से स्वयं का विनाश करना है, जो दुःखी होता है उसका नाश नही होता, जो दुख देता है उसका नाश होता है।
अपनी जिंदगी में कितनी भी आवश्यकता पड़ जाए कभी भी दूसरी की वस्तु को छीनने का भाव आये, सीधा नरक गति के बन्ध का कारण है। किसी को दुःख देकर अपनी जिंदगी सम्हालने का भाव आये तो निश्चित समझना इस समय मुझे नरक गति का बन्ध हो रहा है। इससे बड़ा और एक निकृष्ट भाव और होता है जो नही चाहिए लेकिन इसके पास नही रहना चाहिए।
कभी तुम्हारे लिए इस तरह का भाव आये तो समझना तुम निगोद की तैयारी कर रहे हो। मेरे जीवन मे जब कोई संकट आये तो कोई न कोई मेरी सहायता करे, समझना हमारा इतना पुण्य क्षय हो जाता है जितना एक वर्ष में क्षय होता है। सहयोग लेना और सहयोग मांगना अपने पुण्य का क्षय करना है, भगवान का, गुरु का, माँ-बाप किसी का भी नही सहयोग नही लेना। राजा दो प्रकार के होते है एक राजा को पिता से राजगद्दी मिलती है और दूसरा अपने पुण्य से राजगद्दी प्राप्त कर लेता है क्योंकि उसने पूर्व भव में ये भावना भायी होगी कि मुझे किसी का भी सहयोग न लेना पड़े।
भक्ति यह नही है कि गुरु तुम्हारे दरवाजे आ गए, लेकिन गुरु को बुलाने के लिए जो उत्साह कि कल जरूर आएंगे। जिस समय तुम्हारे मन मे ये भाव आया मुझे मुनि महाराज नही दिख रहे है, चलते फिरते तीरथ दिख रहे है, बस वही है सातिशय पुण्य है, यही है तुम्हारी ऊपर की कमाई और मुनिराज दिख रहे है तो वेतन की कमाई समझना। वेतन सीमित होता या असीम और ऊपर की कमाई असीम। अनुभूति सत्य की करना है और भक्ति उसकी करना है तुम दे सको, तुम्हारे द्वारा, अतिशयोक्ति मत कहना ये भक्ति का पैटर्न है।
सच्चे आदमी की यही लक्षण है कि गुणवान होकर के भी अपने आप को गुणवान नही मानता। मुनिराज प्रतिक्रमण में कहे मैं पापी हूँ कभी भूलकर भी नही मान लेना। संसार मे सबसे ज्यादा झूठ बोलता है जैन मुनि। कभी किसी मुनि को बुखार आ रहा हो और तुमने पूछा कैसे हो, उन्होंने कहा ठीक हूँ। हाथ से चेक करके देखा तो 106° बुखार है। स्वयं के संकटो के मामलों में सदा साधु झूठ बोलता है क्योंकि वो अपने आपको बीमार मानता ही नही है, ये शरीर बीमार है मैं नही क्योंकि मैं तो आत्मा हूँ।
चौबीस घण्टे में एक मंत्र दे रहा हूँ मुझे किसी का सहारा न लेना पड़े ,ये साधना करो, ये तपस्या करो। क्यों बनना चाहते है आप सिद्ध भगवान क्योंकि वे बिना श्वास के, बिना जल के, बिना रोटियों के जिंदा रहते है और सबसे बड़ा सुख वही है जो किसी का सहारा नही लेता है। संसार मे सबसे ज्यादा दुखी वही है जो हर चीज में सहारे पर जी रहा है। भावना भाओ कि हम वो जिंदगी चाहते है जिसमे किसी का सहारा न लेना पड़े, यही भावना एक दिन हमे सिद्ध दशा में पहुँचा देगी।
संकलन- शुभम जैन ‘पृथ्वीपुर’