सुनिल चपलोत/चेन्नई। दया धर्म का मूल है और पाप मूल अभिमान बुधवार श्री एस.एस. जैन भवन में महासती धर्मप्रभा ने आयोजित धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि दया ही धर्म का मूल है,और दया ही सुखों की खान है।दयावान प्राणी कभी किसी का अहित नहीं है और ना ही कभी पाप और अधर्म करता है। वह शुद्ध आत्मा होता है। वह सच्चे अर्थों में धर्मात्मा होता है। जो व्यक्ति दया के भाव विकसित करता है, वह सम्प्रर्ण सुख को प्राप्त करके अपनी इस आत्मा को संसार से मुक्ति दिलवा सकता है। जीवन मे अनुकम्पा और करूणा की भावना नहीं है वो प्रांणी न तो धर्म कर सकता है और नाही वो दया कर सकता है। ऐसा व्यक्ति पत्थर के समान है। दया मे एक सुख नहीं, हजारों सुख छुपे हुए होते है।दया और पुण्य करने वाला व्यक्ति कभी किसी पर एहसान नही जताता है और नाहि कभी रोब दिखाकर अपने एहसानो को गिनवाता है। साध्वी स्नेहप्रभा ने उत्ताराध्ययन सूत्र का वांचन करतें हुए श्रध्दांलू से कहा कि सच्चे संत की कथनी और करणी एक जैसी होती है। जीवन मे संत्व का आना अति आवश्यक है। द्रव्य साधु पणा जीवन का कल्याण नहीं कर सकता है,जब तक भाव साधू पणा नहीं आवे। हमारा धर्म भावना प्रदान धर्म है। प्रत्येक क्रिया मे भावना का महत्व बताया गया है। श्री संघ के कार्याध्यक्ष महावीर चन्द सिसोदिया महामंत्री सज्जनराज सुराणा ने बताया कि इस दौरान धर्मसभा मे अनेंक बहनों और भाईयों ने उपवास एकासन आयंबिल आदि के प्रत्याख्यान लिए। तपस्वीयों और बाहर से पधारे गणमान्य अतिथीयो का श्री एस.एस.जैन संघ के अध्यक्ष एम. अतितराज कोठारी, बादल चन्द कोठारी,सुरेश डूगरवाल, जितेन्द्र भंडारी,अशोक कांकरिया आदि सभी ने तपस्यार्थीयो और अतिथीयो का सम्मान किया।