मानव से भूल होना स्वाभाविक है, दैनिक क्रियाओं में जाने-अनजाने कई गलतियाँ हो जाती है, मन में कषाय उत्पन्न हो जाते हैं। इन भूलों को सुधारने के लिए और पुनः नहीं दौहराने के लिए शास्त्रों में विधिसम्मत प्रावधान एवं समाधान दिए हैं। दैनिक, पाक्षिक, चैमासी और सावत्सरिक पर्व पर अपने द्वारा की गयी भूलों का अवलोकन कर कषाय मुक्त होना है, यही सम्यक्त की साधना तथा कर्म निर्झरा कर मोक्ष का मार्ग है।
पर्वाधिराज पर्व कहते है- यदि सम्यक दृष्टि बने रहना है, श्रावक बने रहना है तो श्रावक में व्याप्त कषाय चार माह से ज्यादा की आराधना वाले नहीं है, क्योंकि क्षमापना के बिना सम्यक्त्व नहीं आता है अर्थात् पावन पवित्र आध्यात्मिक पर्व (सांवत्सरिक क्षमापना पर्व) के प्रसंग पर पूर्वकृत दुष्कृत्यों के लिए क्षमा याचना एवं क्षमा प्रदान नहीं करते हैं तो वे अपने सम्यक्त्व गुण का नाष कर लेते हैं, जब सम्यक्त्व चला जाता है तो श्रावकपना भी चला जाता है, इसलिए श्रावक को क्षमा माँगना एवं करना जरूरी होता है। यह क्षमा शुद्ध भाव से एवं आत्मीयता से हो। औपचारिक रूप से नहीं। क्षमा करने और क्षमा माँगने का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से रूबरू होने में आता है। भावों की विषुद्धि एक-दूसरे के आत्मीय भावों से, बिना किसी शर्त, स्वार्थ एवं हित के क्षमा दी और ली जाती है। क्षमा माँगने से निर्दोषता तथा क्षमा करने से निर्वैरता की प्राप्ति होती है। निर्दोष और निर्वैरता होने पर ही भीतर का अहम गलता है और व्यक्ति के अभिमान रहित होने से उसके भीतर से भेद, भिन्नता और भय का अन्त हो जाता है। भय मुक्त प्राणी सम्यक् ज्ञानी कहा जाता है, लेकिन व्यक्ति के मन में सामने वाले व्यक्तियों के प्रति थोड़ी सी शंका, कड़वाहट, मलिनता, सन्देह रहता है तो स्पष्ट है, हमने उसे सच्चे अर्थो में क्षमा नहीं किया केवल औपचारिकता निभायी है। जीवन में जब तक ‘खार’ होता है, मन में कुटिलता होती है, मलिनता रहती है। अतः ज्ञानियों ने कहा है- “हे जीव तूने क्षमा माँगी फिर भी खार रूपी राजद्वेष हैं। कषाय है, तो सच्ची क्षमा नहीं है। तुझे यह क्षमापना का सुनहेरा अवसर प्राप्त हुआ है, सभी जीवों के साथ मैत्री भाव रखने का साहस प्राप्त हुआ है, लेकिन फिर भी हृदय में क्रोध की ज्वाला का शमन नहीं हुआ है। अतः सोच ! क्षमा का अवसर मिला। यह तेरा सौभाग्य है, लेकिन क्षमा की सच्ची रीत को नहीं समझा यह तेरा दुर्भाग्य है। इस प्रकार वास्तव में जिससे क्षमा माँगनी है, वहाँ तक हम पहुँच नहीं पाते क्योंकि हमारा अभीमान हमारा ‘इगो’ बीच में दीवार बन जाता है। आपसी रंजिष दुष्मनी बीच में आ जाती है तथा मैत्रीभाव नदारद हो जाता है। अतः हे देवानु प्रिय! क्षमा का अमृत तो तभी सिद्ध होता है, जब दवा पीए और दर्दी का दर्द मिट जाए अर्थात् आत्मा का ‘खार’ क्षीण हो जाये या गल जाये।”
आज हमारा महापर्व सांवत्सरिक क्षमापना पर्व भी औपचारिक बनता जा रहा है। ‘क्षमा’ का जो मूल भाव है, वह अन्तस्तः से एवं आत्मीयता से प्रकट नहीं होता। भौतिकता की अंधी दौड़ में इस पर्व की क्षमापना को व्हाट्स एप पर, फैसबुक पर, इन्स्टाग्राम पर केवल संदेष की काॅपी फारवर्ड करने तक सीमित हो गया है। पर्युषण आने से पूर्व ही इस तरह के क्षमापना संदेषों की बाढ़ सी आ जाती है। अधिक संदेष भेजने की होड़ सी मच जाती है। स्थानक में भी या सामुहिक क्षमापना में भी हम केवल अपनी उपस्थिति दर्ज कराने आते हैं और इतिश्री कर लेते हैं। प्रत्येक साधक को अपने हृदय पर हाथ रखकर मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। क्या ऐसी प्रक्रिया ‘क्षमा’ है ? क्या मैं सच्चे मन से क्षमा माँग रहा हूँ ? क्या मैं सच्चे मन से क्षमा कर रहा हूँ ? बिना प्रायश्चित किए, अहंकार को लगाले मेरे द्वारा किए गये दुष्कृत्यों को
सुधारे बिना क्या मेरे पाप घुल सकते हैं ? क्या मैने अपने दुष्कृत्यों का चिन्तन किया है ? यदि ऐसा नहीं किया तो क्षमा माँगना, क्षमा करना, क्षमा के संदेष भेजना केवल औपचारिकता है, सार्थकता नहीं है।
क्षमा पर अनुसंधान कर निष्कर्ष रूप में बताया कि क्षमा की व्याख्या आम धारणा से बिल्कुल अलग पायी इन्होंने बताया कि अक्सर दोषमुक्त करने या होने के बाद इस भावना से ग्रस्त हो जाते हैं कि “अब हमें उनसे क्या लेना देना ? अर्थात् वो माफी को नाराजगी के बदलने की स्थिति बना देते है। जबकि क्षमा का मनौवैज्ञानिक और धार्मिक दृष्टिकोण है, जिसने आपको तकलीफ पहुँचायी है, उसके प्रति दुर्भावना से बाहर निकलना। यह आन्तरिक प्रक्रिया है, जो बिना किसी शर्त पर की जाती है। क्षमा करने वालों को इससे आत्मसंतोष होता है। वह उसके लिए एक बहुमूल्य उपहार है।”
क्षमा पर्व पर हम चैरासी लाख योनी से माँगते हैं। लेकिन सच्चा महत्त्व तब फलीभूत होता है, जिससे क्षमा माँगनी है, उससे माँगे अर्थात् जिनसे मन मुटाव है, विवाद है, उनसे माँगें। यदि इनसे माँगी भी है, तो क्या क्षमा के बाद आपके कषाय उनके प्रति छूट गये आपके भाव निर्मल हो गये उत्तर ‘नहीं’ में आता है अर्थात् हमने केवल औपचारिकता निभाई है। इस औपचारिकता का परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं जैसे बढ़ता तनाव, रिष्तों में दूरियाँ, एकाकी जीवन पद्धति, मानसिक विकृतियाँ आत्म शान्ति का अभाव तथा पापकर्मों का बन्धन।
मनोवैज्ञानिक यहाँ तक कहते हैं, क्षमा न करने से व्यक्ति तनाव ग्रस्त हो जाता है। उसके अति आवश्यक हार्मोन उत्पादन की प्रक्रिया नष्ट हो जाती है। छोटी-छोटी बीमारियों से लड़ने वाली कोषिकाओं को बाधा पहुँचाती है। जिन लोगों के रिष्ते अच्छे नहीं रहते उनमें कार्टिसोल्स हार्मोन का स्तर ज्यादा पाया जाता है। इससे तनाव बढ़ता है, ऐसे में उनकी सोच नकारात्मक बन जाती है, इससे मानसिक विकार तो पैदा होते ही हैं, ईर्ष्या और मनमुटाव की स्थिति व्यक्ति को धीरे-धीरे अवसाद और निराशा के घेरे में घेर लेती है। अतः नफरत इतनी बड़ी नहीं बने कि हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर असर डाले।
इस प्रकार स्पष्ट है, क्षमा के मूल भावों को समझें केवल खमाउसा-खमाउसा से लाभ होने वाला नहीं है। क्षमा तो मैत्री भाव रख कर माँगी जाती है, जिनसे की गयी गलतियाँ पुनः नहीं हो तथा वैर सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाये। औपचारिक रूप से क्षमा नहीं माँगे, जिनसे वैर, विरोध है, उनसे क्षमा माँगे तथा क्षमा देवे, जिससे सम्यक्त की सुरक्षा हो सके। ‘सम्यक्त्व’ मोक्ष का साधन और माध्यम है। अतः इस पर्व की गरिमा को दृष्टिगत रखकर मन से आत्मीयता से तथा गहराई से ‘क्षमा’ के मूल भाव को पर्व के रूप में चरितार्थ करें। क्षमा भाव में जरा भी औपचारिकता को स्थान नहीं देकर सार्थक बनावें।
पदमचन्द गाँधी