Saturday, September 21, 2024

देश की स्वतंत्रता में जैन धर्म एवं जैन धर्मावलंबियों का योगदान

दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढाल,
साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल।

यह सर्व विदित है कि 76 वर्ष पूर्व देश को स्वतंत्रता जैन धर्म के अहिंसा व सत्य के सिद्धांत की पालना करने से ही प्राप्त हुई है । गांधीजी पर अहिंसा का प्रभाव बचपन से पड़ गया था । बचपन में ही उनके अंदर जैन संस्कार थे। उनकी माता सूर्यास्त से पूर्व भोजन करती थी । गांधी जी को पढ़ाई के लिए विदेश भेजना था। उनके माता-पिता ने जैन गुरु से पूछा तब जैन गुरु ने उन्हें वहां जाकर नशा, अंडा, मीट व पराई स्त्री से दूर रहने का नियम दिलाया। विदेश में उन्हें लोगों द्वारा काफी भटकाने की कोशिश करने के उपरांत भी वे अपने नियम पर अड़े रहे।
उन्हें विदेश में धर्म परिवर्तन करने के लिए भी कहा गया। फिर महात्मा गांधी ने जैन भाई राय चंद जिन्हें जैन धर्म के सिद्धांतों की गहन जानकारी थी, उन्हें समाधान के लिए 50-60 प्रश्न भेजकर उनका उत्तर जानना चाहा। गांधी जी के, उनके उत्तर से, सभी संदेह दूर हो गए तथा धर्म परिवर्तन नहीं किया। गांधी जी जन्म से नहीं कर्म से जैन थे ।
अंततोगत्वा महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन के कारण ही अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा और स्वतंत्रता की प्राप्ति हुई ।अहिंसा के बल पर ही वह आज राष्ट्र पिता के नाम से जाने जाते हैं।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम मे देश के सभी धर्मावलंबियों ने जेल की यातनाएं सहकर एवं बलिदान देकर भारत को स्वतंत्रता दिलाने में सहयोग दिया ।
जैन धर्मावलंबी भी देश की स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी रहे है । जैन धर्मावलंबियों ने भी स्वतंत्रता के इस महायज्ञ में अपना सर्वस्व समर्पण किया है एवम लगभग २० जैन शहीदों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया । ग्वालियर नरेश के खजांची अमर शहीद अमरचंद जी बांठिया ने खजाना खोलकर स्वतंत्रता के प्रहरियों की सहायता की। बहादुरशाह जफर के दोस्त लाला हुकमचंद जैन व उनके भतीजे फकीरचंद जैन को उन्हीं के मकान के आगे फाँसी पर लटका दिया । इसी तरह मोतीचंद शाह, उदयचंद जैन, साबूलाल जैन, अर्जुनलाल सेठी जैसे अनेक क्रांतिकारी सेनानियों के कारनामों से इतिहास भरा पड़ा है। डॉ. कपूरचंद जैन एवं डॉ. श्रीमती ज्योति जैन ने इस संबंध में खोजबीन की है और उन्होंने भरसक प्रयत्न किया है उन जैन वीरों को खोजने का जिन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी आहुति दी है।
स्वतंत्रता सेनानी पंजाब केसरी लाला लाजपतराय की दादी जैन धर्मावलंबी थी और वह किसी साधु को भोजन कराये बिना स्वयं भोजन नहीं करती थीं।
जैन पत्रकारिता के पितामह बाबू ज्योतिप्रसाद जैन द्वारा ‘‘जैन प्रदीप’’ में 1930 में ‘‘भगवान महावीर और गांधीजी’’ नामक उर्दू में छपे लेख से अंग्रेज इतना डर गये थे कि उन्होंने इस समाचार पत्र की सारी प्रतियाँ ही जब्त कर ली थी और इसके प्रकाशन पर रोक लगा दी गई थी। प्रसिद्ध साहित्यकार कल्याण कुमार ‘शशि’ तथा श्यामलाल पाण्डवीय की पुस्तक और पत्रिका भी जब्त कर ली गई थी। इस तरह अनेक जैन पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से जैन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने आजादी के यज्ञ में तन—मन—धन, साहित्य तथा क्रांतिकारी विचारों से समर्पण भाव से सहयोग दिया।
पं. बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, पं. फूलचंद जी सिद्धांत शास्त्री, पं. खुशालचंदजी गोरावाला जैसे प्रसिद्ध विद्वानों ने भी जेल की कठिन यातनाएँ सहन की थी। लगभग 5 हजार से भी अधिक जैन धर्मावलंबी जेल गये और सैकड़ों जैनियों ने जेल से बाहर रहकर तन—मन—धन से बढ़ चढ़कर यथा संभव सहयोग दिया । कोई जेल जाकर, कोई बाहर रहकर तथा कई ने आर्थिक सहयोग देकर इस आंदोलन को सशक्त बनाया।
इतना ही नहीं, जैन महिलाओं ने भी स्वतंत्रता के इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। खास बात यह रही कि जैन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने जेल में रहकर तथा अनेक यातनाएँ सहन करते हुए भी अपने जैनत्व के संस्कार को नहीं छोड़ा।
स्वतंत्रता सेनानी सनावद के कमलचंद जैन एडवोकेट का देवदर्शन बिना भोजन नहीं करने का नियम था। दशलक्षण पर्व के दिनों में वह जेल में थे, उन्होंने अनशन कर दिया तथा जेल में ही प्रतिमाजी लाने की अनुमति मिली। वे प्रतिदिन अभिषेक पूजन के साथ दोपहर को तत्वार्थसूत्र का पाठ करते और संध्या को सामायिक अपने अन्य जैन साथियों के साथ करते थे। भोजन भी अपने हाथों से बनाकर शुद्ध भोजन दिन में एक बार करते थे। इसी तरह 1943 में इन्दौर के सेण्ट्रल जेल में म.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री श्री मिश्रीलाल गंगवाल भैयाजी तथा पद्मश्री बाबूलालजी पाटोदी ने भी जेल में ही रहकर सारी दैनिक क्रिया पर्व के अनुसार करते हुए तथा शुद्ध भोजन करते हुए पर्व मनाया। महान क्रांतिकारी अर्जुनलाल सेठी ने बेलूर जेल में 56 दिनों तक निराहार व्रत करते हुए दर्शन— पूजन के लिये जिनेन्द्र प्रतिमा नहीं दिये जाने का विरोध किया। जैन जाग्रति का शंखनाद करने वाले तथा अनेक जैन पत्र पत्रिकाओं का संपादन करने वाले श्री अयोध्या प्रसाद गोयलीय के पिता श्री रामशरणदास जी ने भी जेल में रहकर 6 माह तक केवल नमक को पानी में घोलकर रोटी इसलिये खाई, क्योंकि जेल में मिलने वाली सब्जी में प्याज रहता है था, उनके मौन सत्याग्रह की आखिर में विजय हुई तथा बिना प्याज की सब्जी इनके लिये अलग से बनने की जेल अधिकारियों ने मंजूरी दी। ‘‘अत्याचार कलम मत सहना, तुझे कसम ईमान की’’ जैसी क्रांतिकारी रचना के कारण प्रसिद्ध कल्याण कुमार ‘शशि’ जो कभी विद्यार्थी नहीं रहे, कोई डिग्री जिन्होंने प्राप्त नहीं की, उन पर एक अंग्रेज एस.पी. पर बम फैकने के अपराध में रावलपिण्डी और कश्मीर की जेलों में यातना सहना पड़ी। मध्यभारत के प्रथम मुख्यमंत्री श्री लीलाधरजी जोशी मंत्रिमण्डल में केबिनेट मंत्री रहे इन्दौर के कुसुमकान्त जैन को जब क्रांतिकारियों ने बम ले जाने और आग लगाने के निर्देश दिये तो उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि मैं जैनी हूँ, हिंसा का काम नहीं करूँगा। इसी तरह गोवर्धन दास जी जैन आगरा में रहकर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जैन संस्कारों का स्वयं पालन किया करते थे तथा अन्य जैन साथियों को भी प्रेरणा देते थे। खजुराहो के निकट गाँव में पैदा हुए शहीद छोटेलालजी जैन के साथ जब जेल में खाने पीने की जबरदस्ती की गई तो उन्होंने अनशन करते हुए अपना दृढ़ निश्चय का सिंहनाद किया कि जब तक छना पानी और शुद्ध भोजन नहीं मिलेगा तब तक एक बूँद भी अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा। अंतत: शासन को झुकना पड़ा। जबलपुर के पनागर में जन्मे सिंघई जवाहरलाल जैन का वाक्या भी कुछ ऐसा ही है। दश लक्षण पर्व में वे अपने 40—50 जैन साथियों सहित जेल में थे, उन्होंने जेल में इस बात को लेकर सत्यग्रह किया कि पर्व के दिनों में अपने हाथ से बना शुद्ध भोजन ही ग्रहण करेंगे, जिसमें उन्हें सफलता प्राप्त हुई और दसों दिन पर्व में पूजन भजन के साथ सात्विक भोजन ही किया। पन्ना दमोह क्षेत्र से सांसद रहे प्रसिद्ध सामाजिक राजनीतिक पदों को सुशोभित करने वाले श्री डालचंद जैन ने स्वतंत्रता आंदोलन में शरीक उन सभी जैन सेनानियों की जेल में शुद्ध भोजनादि की व्यवस्था की। आचार्य नेमिसागर महाराज ने भी गृहस्थ अवस्था में स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय सहयोग दिया था। ग्यारह माह तक लाहौर जेल में रहे, जेल की अशुद्ध रोटी नहीं खाई। कई दिनों तक उपवास किया। अंत में शुद्ध भोजन की व्यवस्था हुई। इसी तरह क्षुल्लक पदमसागर जी महाराज ने भी गृहस्थ अवस्था में स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय सहयोग दिया। उन्हें बड़ौदा में 144 धारा तोड़ने के कारण जेल जाना पड़ा। जैन समाज के प्रख्यात विद्वान पं. परमेष्ठीदास जी भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रहते हुए जेल गये। 20वीं सदी के अग्रगण्य जैन विद्वानों में पं.फूलचंद जी शास्त्री का नाम आदर से लिया जाता है। वे भी ललितपुर में गिरफ्तार हुए और जेल गये। वे विदेशी वस्त्र एवं सामग्रीयों का उग्रतापूर्वक बहिष्कार करते थे स्वयं देशी वस्त्र पहनते थे, एक विदेशी विद्वान के यह पूछने पर कि जैन धर्म को अन्य धर्मों से अलग किस तरह से समझा जाये, तो उन्होंने उत्तर दिया कि व्यक्ति स्वतंत्रता जैन धर्म का उद्देश्य है और स्वावलम्बन उसकी प्राप्ति का मार्ग है। जैन दर्शन के उद्भट विद्वान पं.बंशीधर जी व्याकरणाचार्य भी इस मातृभूमि को स्वतंत्रता दिलाने में पीछे नहीं रहे। युवाअवस्था से ही आप देश सेवा के यज्ञ में सक्रिय रहे। सागर, नागपुर,अमरावती आदि जेलों की यातनाओं में भी उनके जैनत्व के संस्कार अपराजेय ही रहे।पद्म श्री बाबूलाल जी पाटोदी समाज के सम्मानित और प्रतिभावान नेता तो रहे ही हैं, स्वतन्त्रता आंदोलन में 1939 से ही सक्रिय हो गये थे और अपने जीवन में अनेक बार जेल की दारुण यातनाएँ सहनी पड़ीं। इन्दौर के तत्कालीन मध्यभारत के मुख्यमंत्री रहे मालवा के गांधी के नाम से प्रसिद्ध श्री मिश्री लाल जी गंगवाल भैय्याजी ने अनेक आंदोलनों में हिस्सा लिया तथा जेल यात्राएँ भी की। वे आध्यात्मिक भजनों के विनोदी थे। धार्मिक सभाओं के अलावा राजनीतिक सभाओं में भी अपने भजनों से सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उनके जीवन की घटनाओं के अनुसार वे कट्टर शाकाहारी थे। इस नियम का राजनीतिक उच्च पद पर रहकर भी कितनी दृढ़ता से पालन करते थे, वह स्तुत्य एवं अनुकरणीय है। उनके मुख्यमंत्रित्व काल में युगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो उनके भोजन में माँसाहार भी शामिल था लेकिन शाकाहार के कट्टर समर्थक श्री गंगवाल जी ने जब भारत आये तो इन्दौर भी आने का कार्यक्रम बना। उस समय भारत के प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने भैय्या जी को मार्शल टीटो के आतिथ्य के संबंध में निर्देश भेजे, जिसमें निडर होकर दृढ़तापूर्वक नेहरूजी को सूचित किया कि मैं राजकीय अतिथियों को शुद्ध जल एवं शाकाहारी भोजन ही उपलब्ध करा सकूगा। मांसाहार उपलब्ध कराने में असमर्थ रहूँगा। कृपया क्षमा करें। नित्य नियम से पूजन अभिषेक स्वाध्याय के पश्चात् ही वे अपनी दिनचर्या प्रारंभ करते थे। वर्तमान के संदर्भ में ऐसे साफ सुथरे चरित्र और जैनत्व के संस्कारों से युक्त आचरण वाले राजनेता का उदाहरण संभव नहीं लगता है।
जैन धर्म के सिद्धांत कितने महान हैं, इसका प्रमाण यह है कि भारतवर्ष के संविधान में जैन धर्म के मूलभूत अहिंसा धर्म के सिद्धांत जीव मात्र के प्रति दया भाव को संविधान में शामिल कर इसे नागरिकों के मूल कर्तव्य के रूप में प्रतिपादित किया गया है, तथा भारत वर्ष का संविधान बनाने वाली संविधान निर्माता समिति में 5 जैन धर्मावलंबियों को शामिल किया गया था। जिनमें श्री रतनलाल जी जैन मालवीय, अजितप्रसाद जी जैन, भवानी अर्जुन खीमजी, बलवंतसिंह मेहता और कुसुमकांत जी जैन शामिल थे।
कह सकते है कि अहिंसा भी एक धारदार हथियार है जो किसी को शरीर से नहीं मन से मारता है । मन से मारने में सामने वाले को अपनी बुराई छोड़ने में खुशी का अनुभव होता है, उसकी आत्मा परम पवित्र बन जाती है । चारो ओर निर्भय का वातावरण बन जाता है, स्वतंत्रता का अनुभव होता है।

जैन धर्म के सिद्धांत शाश्वत सत्य है, पुराने जमाने से लेकर आज तक इनमे कोई परिवर्तन नहीं हुआ है । विश्व शांति जैन धर्म के सिद्धांत अपनाकर ही प्राप्त की जा सकती है ।

साभार ‘‘सन्मतिवाणी’’
संकलन : भागचंद जैन मित्रपुरा
अध्यक्ष अखिल भारतीय जैन बैंकर्स फोरम, जयपुर।

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