हम अपना अदब, ईमान खोते जा रहे हैं।
अपनी विरासत, अभिमान खोते जा रहे हैं।।
बड़े जतन से माँ-बाप ने, बनाया था आशियां।
समझा मिट्टी का घरौंधा, अब धूल खा रहे हैं।।
खून पसीने से सींच, जो लगाया था उपवन।
उनके अरमानों की अस्थियां, सरेआम बहा रहे हैं।।
एक छोटी सी कुटिया में, परिवार संयुक्त था।
अब इमारत भी कम है, क्या इबादत निभा रहे हैं।।
आज किसको फिकर, आपसी संबंध रहें ना रहे।
घर के बुजुर्ग अब, बूढे बरगद से होते जा रहे है।।
अपने ऐसो-आराम में, अपनों की परवाह कहां।
हम अपने में मस्त, अपने दर-दर ठोकर खा रहे हैं।।
पूर्वजों की स्मृतियां, अवशेष सी लगने लगी।
हम क्यों जिंदादिली का, सुबूत खोते जा रहे है।।
“शरद” स्वार्थ के व्यापार का, विस्तार यूं हुआ।
दिनों दिन मां-बाप के, बंटवारे होते जा रहे हैं।
शरद जैन सुधान्शु