बड़ौत (उ.प्र.)। आचार्य श्री विशुद्धसागर जी गुरुदेव ने धर्म-सभा मेंकहा कि – गुरु जहाज के समान होते हैं, जैसे नौका में बैठक व्यक्ति नदी पार करते हैं, वैसे ही गुरुवाणी सुनकर भव्य जीव संयम धारण कर, भव पार हो जाते हैं। महाराज श्री ने कहा की संसार में धर्म ही शरणभूत है। गुरूओं की वाणी यथार्थ का बोध कराने वाली परम-औषधि है, जो जन्म-मरण- रूपी रोगों की दवाई है। भव पार करना है तो गुरूओं की शरण प्राप्त करो। संसार में संकटों से दूर करने वाला यदि कोई है तो वह एक मात्र सच्चा धर्म ही है, जो अहिंसा से परिपूर्ण है। महाराज श्री ने आगे कहा कि जिनके विचार पवित्र हैं, उनका ही भविष्य उज्ज्वल है। जिनका संयम निर्दोष होगा, वही मुक्ति प्राप्त कर सकता है। जो वैराग्य से भरा है, वही अपने संयम की रक्षा कर सकता है। जो आकांक्षाओं से भरा है, उसे चिंता, संक्लेशतापूर्ण जीवन जीना पड़ेगा। जिसकी चर्चा एवं चर्या निर्दोष होगी उसकी यश-पताका हमेशा लहराती रहेगी। समाज की उन्नति के लिए निद्वान् एवं धनवान् दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।असत्य भी सत्य होता है और सत्य भी सत्य होता है। असत्य असत्यरूप सत्य है, सत्य सत्यरूप सत्य है। कांच की माला स्फटिक की नहीं है, इसलिए लोग उसे नकली कहते हैं, परन्तु वह कांच की अपेक्षा असली ही है। यह जैन दर्शन की अनेकान्त-स्याद्वाद दृष्टि है। भूतार्थ भूतार्थ है, अभूतार्थ अभूतार्थ है। अपेक्षा को समझना पड़ेगा। जो अपेक्षा की समझ लेता है, वह विसम्वाद नहीं करता है। रत्नों में वज्र, चंदनों में मलयागिरि चंदन, तीर्थों में सम्मेदशिखर, मंत्रों में महामंत्र णमोकार श्रेष्ठ है, उसी प्रकार धर्मों में वीतराग- धर्म सर्वश्रेष्ठ है। विचारों में पवित्रता, क्रिया में अहिंसा, दृष्टि में अनेकान्त, बाणी में स्याद्वाद ही जैन धर्म है। सर्वश्रेष्ठ तीर्थ ‘निजात्मा’ ही है। शरीर मंदिर है, उसका परम।”देव ‘आत्मा’ है। निज देह में विराजित आत्मा ही ‘परमात्मा’ है। निजात्मा ही चैतन्य तीर्थ है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमंडी