कभी मत करना किसी का घर तुड़वाने का पाप, कर्म कभी पीछा नहीं छोड़ते: साध्वी चेतनाश्रीजी म.सा.
सुनील पाटनी/भीलवाड़ा। जिनवाणी भवों का बंधन तोड़ चारों गति से पार कराने वाली है। जिनवाणी आपको आत्म हितेषी बन आत्मा के उत्थान, कर्मो की निर्जरा ओर पाप क्षय करने का अनुपम अवसर देती है। जिनवाणी का अर्थ सादा जीवन उच्च विचार है लेकिन आज के युग में हमारा जीवन तो उच्च होता जा रहा पर विचार निम्न होते जा रहे है। आत्मा की अनदेखी कर शरीर को सजाने में लगे है। ये विचार शहर के चन्द्रशेखर आजादनगर स्थित स्थानक रूप रजत विहार में शुक्रवार को मरूधरा मणि महासाध्वी श्रीजैनमतिजी म.सा. की सुशिष्या महासाध्वी इन्दुप्रभाजी म.सा. के सानिध्य में नियमित चातुर्मासिक प्रवचन में मधुर व्याख्यानी डॉ. दर्शनप्रभाजी म.सा. ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि चातुर्मास में हम जप-तप-साधना करके जैनी बनने का प्रयास करते है लेकिन बाकी महीन हमारे कर्म ऐसे होते है जो जैन दर्शन व सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होते है। हमे अपना जैन कुल में जन्म सार्थक करना है तो चातुर्मास के चार महीने वाला नहीं बल्कि 12 महीने वाले जैनी बनकर रहना होगा। उन्होंने कहा कि नियम क्रिया चार माह के लिए नहीं 12 माह के लिए हो। रात्रि भोजन का त्याग चातुर्मास तक क्यों पूरे वर्ष भर क्यों नहीं कर सकते। हम नियम छोड़ अपने धर्म की हानि कर रहे है। साध्वीश्री ने कहा कि बच्चा अपने भाग्य व कर्म से आगे बढ़ता है कभी यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि मेरे बिना काम नहीं चलेगा। हम अपने हितेषी तो खूब बन गए है चातुर्मास ने हमे आत्महितेषी बनने का अवसर दिया है। धर्मसभा में आगममर्मज्ञा डॉ. चेतनाश्रीजी म.सा ने कहा कि नियम क्रिया पूर्वक की जाने वाली साधना सार्थक होती है। हमारी बोली हमेशा मीठी होनी चाहिए ओर किसी का दिल तोड़ने वाली बाते नहीं होनी चाहिए। बड़ो में बड़प्पन नहीं होने पर परिस्थितियां विकट हो जाती है। उन्होंने कहा कि कभी किसी का घर मत तुड़वाना या ऐसी कोई बात मत करना जिससे किसी के परिवार में आपसी दिवारे खड़ी हो जाएंगे। किसी का घर तुड़वाकर इस जन्म में राजी भी हो गए तो याद रखना अगले 100 जन्म तक कर्म तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाले है। हम अपने स्वार्थो के लिए बेटी को उसके सास-ससुर से अलग रहने के लिए प्रेरित करेंगे तो याद रहे कल तुम्हारी बहु भी तुम्हारे साथ ऐसा ही करने वाली है। चेतनाश्री म.सा. ने जब तक खरीद की जरूरत नहीं हो तब तक अस्त्र-शस्त्र सम्बन्धी त्याग का संकल्प भी कराया। इसके तहत काटने वाली चीजों की खरीद व उपयोग से यथासंभव दूर रहना है। धर्मसभा में महासाध्वी इन्दुप्रभाजी म.सा. ने कहा कि हमारे कर्म आत्मा को पावन बनाने वाले होने चाहिए। कषाय बढ़ाने वाले कर्म करने पर भव-भव दुःख से गुजर जाते है। हम मान, माया, मोह, लोभ, मद आदि कषायों का त्याग करना होगा। पहले आसानी से वैराग्य भाव आ जाता था लेकिन अब तक व्यक्ति सामायिक भी नहीं करना चाहता है। हम अपने बच्चों को भी इस डर से धर्मस्थान से अधिक नहीं जुड़ने देते कि कहीं उनमें वैराग्य भाव नहीं आ जाए। वैराग्य उदय आसान नहीं है यह तो पुण्यवानी से ही आता है। उन्होंने कहा कि धर्म क्रिया करते समय निधन होने पर कभी उसे अपशगुन मान त्यागने की बजाय ये सोचना चाहिए कि सद्गति की प्राप्ति हुई है। साध्वीश्री ने जैन रामायण का वाचन करते हुए बताया कि बालि के संयम जीवन स्वीकार करने के बाद तारा की शादी सुग्रीव से हो जाती है। तारा धर्म में आस्था रखने वाली महान सती होती है। शुरू में आदर्श सेवाभावी दीप्तिप्रभाजी म.सा. ने भजन ‘मैं तो जपो सदा तेरा नाम दयालु दया करो’ की प्रस्तुति दी। धर्मसभा में तत्वचिंतिका समीक्षाप्रभाजी म.सा., नवदीक्षिता हिरलप्रभाजी म.सा. का भी सानिध्य मिला। धर्मसभा में रामगढ़ से आए श्रावकों के साथ शहर के विभिन्न क्षेत्रों से आए श्रावक-श्राविका मौजूद थे। चातुर्मास आयोजक श्री अरिहन्त विकास समिति द्वारा अतिथियों का स्वागत किया गया। धर्मसभा का संचालन श्रीसंघ के मंत्री सुरेन्द्र चौरड़िया ने किया। चातुर्मासिक नियमित प्रवचन प्रतिदिन सुबह 8.45 बजे से 10 बजे तक होंगे।
पांव की मोच ओर छोटी सोच इंसान को आगे नहीं बढ़ने देती
साध्वी दर्शनप्रभाजी ने हमेशा दिल बड़ा रखने की प्रेरणा देते हुए कहा कि दिल बड़ा रखेंगे तो खुश होकर साधर्मी भी घर आएंगे और दिल संर्कीण कर लिया तो कोई नहीं आने वाला है। पांव की मोच ओर छोटी सोच इंसान को कभी आगे नहीं बढ़ने देती है। हम पैसे से भले छोटे हो पर विचारों से तो बड़े बन सकते है। साध्वीश्री ने कहा कि शरीर के हितेषी बनोंगे तो पाप कर्म होंगे और आत्महितेषी बनेंगे तो दुर्गणों से मुक्त होंगे। व्यर्थ के पापों से बचे, पाप कभी हम सुख प्रदान नहीं कर सकते। वह किसी भी रूप में आकर हमसे बदला ले सकते है। हम पापों के लिए अपने दरवाजे बंद कर देने चाहिए।