अशोक नगर। हम जो महसूस करते हैं वह हमरा स्वभाव नहीं है सब के वीच राग द्वेष हो रहा है हम राग द्वेष क्रोध मान माया में पड़े है इनको छोड़ने पर स्वभाव की प्राप्ति होती है कर्मो के अभाव में स्वभाव की प्राप्ति होती है ऐसे उस परमात्मा को हम नमस्कार करते है ऐसे स्वभाव की प्राप्ति ऐसे ही नहीं हो जाती इसको पाने के लिए हम नियम संयम ले लो जैसे दूध में धी की शक्ति छिपी है दूध से तपकर घी तक पहुंचते हैं अग्नि के हटाने से स्वभाव की प्राप्ति होती है ऐसे ही हमें अपने स्वभाव की प्राप्ति हो सकती है उक्त आश्य केउद्गार सुभाष गंज मैदान में धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए आचार्य श्री आर्जव सागर जी महाराज ने व्यक्त किए।
परिग्रह के कोट को उतार कर चारित्र को धारण करना होगा
उन्होंने कहा कि आप वैराग्य भावना को भाये ब्रजनाभी चक्रवर्ती पद को छोड़ने तैयार हो गई सब पापों का जिसे वाप कहा गया परिग्रह कोट उतार कर चारित्र को धारण कर लिया आप भी निर्ग्रन्थ बन जायेंगे तो आप को भी स्वभाव की प्राप्ति हो जायेगी। जगत में संयोग के साथ वियोग निश्चित हैं जगत में जो दिख रहा है जिनसे हमारे स्वार्थ की पूर्ति होती है उन्हें हम ध्याते है अनाधीकाल से ये संसार हमारे पीछे लगा है क्योंकि मोह रुपी मदिरा पी कर ये जीव मद मस्त हो जाता है अपने स्वरूप को भूल जाता है संयोग, ससलेश, तादात्म संबंध तीन प्रकार के संबंध होते हैं मिलना विक्षुणना चलता है संयोग का वियोग निश्चित है जव तक कर्म है तव तक ये आपके साथ है संयोग भी तो दुख रूप है ये शरीरी आत्मा अनेक दुख को देने वाला है।
संयोग छोड़े विना आत्मा का ध्यान हो ही नहीं सकता
उन्होंने कहाकि संयोग छोड़े बिना आत्मा का ध्यान नहीं हो सकता ये देह ही अपनी नहीं है तो घर सम्पत्ति पर प्रकट है पर है परिजन लोय दुनिया में ध्यान तो बहुत कराया जा रहा है लेकिन परिग्रह के त्याग विना ध्यान हो ही नहीं सकता है ऐसे तो छोटी मोटी उपलब्धी मिल जायेगी किन्तु जो आप परम पावन पद की प्राप्ति करने के लिए शुक्ल ध्यान की जरूरी है धर्म ध्यान तो आज भी होता है वहीं संश्लेष संबंध दूध पानी की तरह आत्मा के साथ जो संबंध बंधे है और तादात्म संबंध ये गुण गुणी का संबंध सोने के पीले होने के समान है जैसे सूर्य का प्रकाश धूल से डक जाता है धूल के हटते ही आप अपने आत्म तत्त्व को जान सकते हैं ये इतने आसान नहीं है ये सब अभ्यास से प्राप्त होता है।