Saturday, September 21, 2024

अंतर्मना आचार्य श्री प्रसन्न सागर जी के प्रवचन से…

आज कल, सबको सबके बारे में, सब कुछ पता है..
पर स्वयं की अहमियत का बोध नहीं..!

गलत फ़हमी और प्रतिशोध की आग अच्छे खासे जीवन को तबाह कर देती है। मनुष्य अपने जीवन में जाने अनजाने, कई अवगुण पाल लेता है। ये अवगुण उसे निस्तेज करने लगते हैं — प्रतिशोध की ऊर्जा निःसंदेह हमें क्षीण कर देती है।
प्रतिशोध एक ऐसा अवगुण है जो हमारी सामर्थ्य को खत्म कर देता है।
प्रतिशोध की अग्नि भयावह होती है, जो विनाश को आमन्त्रित करती है । प्रतिशोध की अग्नि में जलने वाला व्यक्ति स्वयं को अनर्थ की ओर धकेलने लगता है।

किसी के उचित-अनुचित व्यवहार का उत्तर, केवल उसके अनुरूप देने, या दुराग्रह भाव के देने से, ही प्रतिशोध का जन्म होता है। व्यक्ति अनर्थ को अनर्थ से, अनीति को अनीति से, पाप को पाप से, कीचड़ को कीचड़ से धोने का प्रयास करता है, जो न्याय संगत नहीं है। अनीति का प्रतिकार करना उचित है, परन्तु प्रतिशोध की राख को माथे का श्रृंगार बनाना मूर्खता है।

छोटी छोटी बातों को मन में रख लेना, या बैर की गांठ बांध लेना या बार बार स्मरण करना, या क्रोध की अग्नि में दहकना, प्रतिशोध को आमंत्रित करता है। बुद्धि और विवेक से किसी भी प्रकार के अन्याय को दंडित किया जा सकता है। प्रतिशोध की ज्वाला में व्यक्ति स्वयं के विवेक को भस्म कर डालता है। जैसे दुर्योधन के प्रतिशोध ने सब कुछ स्वाहाः कर डाला था और असंख्यात योद्धाओं के असमय को, काल का ग्रास बना दिया था।

“सौ बात की एक बात”
प्रतिशोध का परिणाम हमेशा दुखदाई होता है। यह सदा विनाश लीला रचता है…। नरेंद्र अजमेरा पियुष कासलीवाल औरंगाबाद

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