Sunday, November 24, 2024

वीर शासन जयंती-भगवान महावीर का प्रथम देशना दिवस

जैन धर्म अनादि, अनंत, शास्वत धर्म है। जैन धर्म के वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ थे एवं अन्तिम 24वें तीर्थंकर वर्तमान शासन नायक भगवान महावीर है । भगवान महावीर का जन्म 599 ई० वर्ष पूर्व क्षत्रीय कुण्डाग्राम ( कुण्डलपुर- वैशाली) वर्तमान बिहार राज्य में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन हुआ था । इनके पिता का नाम राजा सिद्धार्थ एवं माता का नाम रानी प्रियकारिणी (त्रिशला) था। इनके बचपन का नाम वर्धमान था। इन्हे अल्प काल में ही समस्त विद्याएं स्वत: प्राप्त हो गई थी । बालक वर्धमान विद्वान होने के साथ साथ शूरता, वीरता, साहस आदि अनन्य गुणों के आश्रय थे। भगवान महावीर ने 30 वर्ष की आयु में मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन गृह त्याग कर दिया था एवं मुनि दीक्षा गृहण कर ली थी। इसके पश्चात् लगातार 12 वर्ष 5 माह एवं 15 दिन तक तप, संयम एवं साम्य भाव की साधना की और केवल ज्ञान प्राप्त हुआ।
भगवान महावीर को केवलज्ञान प्रगट होकर समवसरण की रचना हो चुकी थी, किन्तु दिव्यध्वनि नहीं खिर रही थी। 66 दिन व्यतीत हो गये, तभी सौधर्म इन्द्र ने समवसरण में गणधर का अभाव समझकर अपने अवधिज्ञान से ‘‘गौतम’’ जो मगध देश में ब्राह्मण नाम के नगर में शांडिल्य नाम के ब्राह्मण की दो पत्नी थीं-स्थंडिला और केशरी स्थंडिला ने गौतम और गाग्र्य को जन्म दिया तथा केशरी ने भार्गव को जन्म दिया एवं इन तीनों भाइयों के इन्द्रभूति, अग्निभूति एवं वायुभूति नाम प्रसिद्ध थे। इनमे से इंद्रभूति को इस योग्य जानकर उन्हे अपने तरीके से बुलाने के लिए वृद्ध का रूप बनाया और वहाँ गौतमशाला में पहुँचकर कहा कि “मेरे गुरु इस समय ध्यान में होने से मौन हैं और आप को योग्य जानकर मैं आपके पास इस श्लोक का अर्थ समझने आया हूँ।’’ इंद्रभूति को गौतम के नाम से ज्यादा जाना जाता है । गौतम ने विद्या के गर्व से गर्विष्ठ हो पूछा-‘‘यदि मैं इसका अर्थ बता दूँगा तो तुम क्या दोगे?’’ तब वृद्ध ने कहा-यदि आप इसका अर्थ कर देंगे, तो मैं सब लोगों के सामने आपका शिष्य हो जाऊँगा और यदि आप अर्थ न बता सके तो इन सब विद्यार्थियों और अपने दोनों भाईयों के साथ आप मेरे गुरु के शिष्य बन जाना।’’
महा अभिमानी गौतम ने यह शर्त मंजूर कर ली क्योंकि वह समझता था कि मेरे से अधिक विद्वान इस भूतल पर कोई है ही नहीं। तब वृद्ध ने वह काव्य पढ़ा-
‘‘धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षड्द्रव्यकायसहिता: समयैश्च लेश्या:।

तत्त्वानि संयमगती सहितं पदार्थै-रंगप्रवेदमनिशं वद चास्तिकायं।।’’

तब गौतम ने कुछ देर सोचकर कहा-‘‘ब्राह्मण! तू अपने गुरु के पास ही चल, वहीं मैं इसका अर्थ बताकर तेरे गुरु के साथ वाद-विवाद करूँगा।’’ इन्द्र तो चाहता ही यह था। वह वृद्ध वेषधारी इन्द्र गौतम को समवसरण में ले आया।
वहाँ मानस्तंभ को देखते ही गौतम का मान गलित हो गया और उसे सम्यक्त्व प्रगट हो गया। गौतम ने अनेक स्तुति करते हुए भगवान के चरणों को नमस्कार किया तथा अपने पाँच सौ शिष्यों और दोनों भाईयों के साथ भगवान के पादमूल में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। अन्तर्मुहूर्त में ही इन गौतम मुनि को सातों ऋद्धियाँ, अवधि और मन:पर्ययज्ञान प्रगट हो गया तथा वे तीर्थंकर महावीर स्वामी के प्रथम गणधर हो गये। उत्तर पुराण में लिखा है-
‘‘तदनन्तर सौधर्मेन्द्र ने मेरी पूजा की और मैंने पाँच सौ ब्राह्मण पुत्रों के साथ श्री वर्धमान भगवान को नमस्कार कर संयम धारण किया। परिणामों की विशेष शुद्धि होने से मुझे उसी समय सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई। तदनन्तर भट्टारक वर्धमान स्वामी के उपदेश से मुझे श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन पूर्वान्ह काल में समस्त अंगों के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया। पुन: चार ज्ञान से सहित मैंने रात्रि के पूर्व भाग में अंगों की तथा रात्रि के पिछले भाग में पूर्वों की रचना की ।
‘‘जिस दिन भगवान महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त होगा, उसी दिन मैं केवलज्ञान प्राप्त करूँगा।

इससे पूर्व गणधर के अभाव में भगवान महावीर की दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी। इनके दीक्षा लेते ही प्रभु की दिव्यध्वनि खिरने लगी। उस दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा थी प्रात:काल गौतम स्वामी ने दीक्षा ली, प्रभु की दिव्यध्वनि खिरी। उसी दिन रात्रि में भगवान महावीर गौतम गणधर देव ने ग्यारह अंग-चौदह पूर्वों की रचना कर दी ।

आज से पच्चीस सौ अस्सी वर्ष पूर्व राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन भगवान महावीर स्वामी की प्रथम दिव्यध्वनि खिरी थी अत: यही पवित्र दिन ‘‘वीर शासन जयंती’’ पर्व के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त है, क्योंकि तब से लेकर आज तक भगवान महावीर का ही शासन चला आ रहा है ।
इसी दिन श्री गौतम स्वामी नाम से प्रसिद्ध भगवान के प्रथम गणधर ने द्वादशांग की रचना की थी अथवा ग्यारह अंग और चौदह पूर्वों की रचना की थी।
इस दिन भगवान महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि खिरी है वह सात सौ अठारह भाषारूप है अथवा सर्वभाषामयी है। उसी का स्पष्टीकरण-

मृदु, मधुर, अति गंभीर और विषय को विशद करने वाली भाषाओं से एक योजनप्रमाण समवसरण सभा में स्थित तिर्यंच, देव और मनुष्यों के समूह को प्रतिबोधित करने वाले हैं, संज्ञी जीवों की अक्षर और अनक्षररूप अठारह महाभाषा और सात सौ छोटी भाषाओं में परिणत हुई और तालु, दन्त, ओठ तथा कण्ठ के हलन-चलन- रूप व्यापार से रहित होकर एक ही समय में भव्यजनों को आनन्द करने वाली भाषा (दिव्यध्वनि) के स्वामी भगवान महावीर हैं।

षट्खण्डागम ग्रंथ की नवमी पुस्तक में श्री वीरसेन स्वामी ने लिखा है कि गणधर देवों के सातों ऋद्धियाँ होती हैं- गणधर देव बुद्धि, तप, विक्रिया, औषधि, रस, बल, अक्षीण, सुस्वरत्वादि तथा अवधि एवं मन:पर्यय ज्ञान से सहित हैं।

आज जितना भी जैन वाङ्मय है, वह सब भगवान महावीर की दिव्यध्वनि का ही अंश है।

यह श्रावण कृ. एकम तभी से वीरशासन जयंती के नाम से प्रसिद्ध है।
जैन शास्त्रों मे इसे युगादि दिवस भी माना गया है। यह धर्म तीर्थ उत्पत्ति का भी प्रथम दिन है अत: इसे प्रथम देशना दिवस के नाम से भी कहते हैं।

संकलन
भागचंद जैन मित्रपुरा
अध्यक्ष,अखिल भारतीय जैन बैंकर्स फोरम जयपुर।

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