आती-जाती सरकारों से,
अब क्या लेना?
प्रलोभन के गलियारों से,
अब क्या लेना?
झूठे आश्वासनों के नारों से,
अब क्या लेना?
कपोल कल्पनाओं की चाशनी में,
डूबे जुमलों की बौछारों से,
अब क्या लेना?
शिक्षा के जब द्वार खुले हैं।
समता के जब सबको अधिकार मिले हैं।
जब सोच समझ कर ही,
अपना बहुमूल्य मतदान अब है देना,
तो फिर बेमतलब की दौड़ भाग से,
अब क्या लेना?
आती-जाती सरकारों से,
अब क्या लेना?
डॉ. कांता मीना
शिक्षाविद् एवं साहित्यकार