आचार्य गुरुवर श्री निर्भय सागर मुनिराज के आज्ञानुवर्ती शिष्य श्री जिनदत्त सागर जी क्षु्ल्लक महाराज, जिन्होंने दीक्षा के समय अपने परिग्रह का त्याग करके आकिंचन्य व्रत ग्रहण किय, अपने शरीर से वस्त्र आभूषणों को उतार कर फेंक दिया, केशों को क्लेश समान समझते हुए उनका भी लौंच कर डाला। अब देह से भी निर्ममत्व होकर नग्न रहने की आकांक्षा रखते हैं। विशेष सिद्धि और विशेष लोक सेवा के लिए ही विशेष तपश्चरण की जरूरत होती है — तपश्चरण ही रोम-रोम में रमे हुए आंतरिक मल को छांट कर आत्मा को शुद्ध ,साफ ,समर्थ और कार्यक्षम बनाता है ऐसे पूज्य क्षुल्लक जी महाराज की आहार चर्या निरन्तराय संपन्न हुई। पूज्य क्षुल्लक जी महाराज पार्श्वनाथ भवन में विराजमान हैं।
रमेश गंगवाल