गतांक से आगे—–
श्रमण दिगंबर मुनि पद अत्यंत साहस साध्य है, अच्छे संहनन वाले इसमें सफल होकर निर्वाण लक्ष्मी को भी प्राप्त कर पाते हैं, तथा परम्परा से मोक्ष मार्ग प्रशस्त करने की दृष्टि से सभी संहनन वाले मानव इस पद को ग्रहण करने के अधिकारी हैं ,आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच नाराच, अर्धनाराच, कीलक और असंप्राप्तास्त्रिपाटिका इन छहों संहननो में से किसी एक के धारी ,दीक्षा ग्रहण करने के अधिकारी हैं, जिन धर्म -मुनि धर्म की धारा इस कलि काल में भी अंन्त्यावधी पर्यन्त बतलाई गई है और आज भी परम दिगंबर श्रमण मुनियों की सत्ता विद्यमान है ।
आइए आज हम कलि काल सर्वज्ञ आचार्य भगवंत कुंदकुंद स्वामी के रचित अन्य ग्रंथों को जाने, समझे ,और उनका मनन करें।
भावपाहुड—-१६५ गाथाओं का यह ग्रन्थ बड़ा ही महत्वपूर्ण है इसमें भावों की– चित्तशुद्धि की –महत्ता को अनेक प्रकार से समझाते हुए आचार्य भगवंत ने इसे लिपिबद्ध किया है। बिना भाव के बाह्य परिग्रह का त्याग करके नग्न दिगंबर साधु होने और वन में जाकर बैठने को भी व्यर्थ ठहराते हुए, गुरुदेव ने कहा है परिणाम शुद्धि के बिना ,संसार परिभ्रमण नहीं रुकता है,और ना ही बिना भाव के कोई पुरुषार्थ ही साधा जा सकता है।
भावों की शुद्धि के बिना सब कुछ व्यर्थ है, इस तरह से अनेक बहुमूल्य शिक्षाओं एवं मर्म की बातों से इस ग्रंथ को आचार्य भगवंत ने परिपूर्ण करते हुए रच दिया है। इसकी कितनी ही गाथाओं को समझकर अनुसरण करते हुए गुण भद्र आचार्य भगवंत ने अपने आत्मानुशासन ग्रंथ में उल्लेख किया है।
मोक्खपाहुड—-कलि काल सर्वज्ञ का १०६ गाथाओं का यह अत्यंत महत्वपूर्ण आगम ग्रंथ है। इसमें आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ऐसे तीन भेद करते हुए उनके स्वरूप को समझाया है, मुक्ति अथवा परमात्मा पद कैसे प्राप्त हो सकता है इसका अनेक प्रकार से निर्देश किया है। इस ग्रन्थ के कितने ही वाक्यों का अनुसरण आचार्य भगवंत पूज्य पाद स्वामी ने अपने समाधि तंत्र ग्रन्थ में किया है । इस तरह से दंसणपाहुड से मोक्खपाहुड तक के छह प्राभृत ग्रंथों पर श्री श्रुत सागर सूरी की टीका भी उपलब्ध है, जोकि प्रकाशित हो चुकी हैं।
लिंगपाहुड—चारण ऋद्धि प्राप्त गुरुदेव का यह अद्भुत ग्रंथ है २२गाथात्मक इस रचना में, श्रमणलिंग को लक्ष्य बनाकर उन आचरणों का उल्लेख किया गया है, जो लिंगधारी जैन साधु के लिए निषिद्ध हैं और साथ ही उन निषिद्ध बताये गये आचरणों का फल भी नरक गामी बतलाया गया है। तथा उन निषेध किये आचरणों में प्रवृत्ति करने वाले लिंगभाव से शून्य साधुओं को श्रमण नहीं माना गया है, बल्कि तिर्यंच योनि का बतलाया गया है।
शीलपाहुड—-यह ४० गाथाओं की रचना है। इसमें शील का -विषयों से विराग का- महत्व स्थापित किया है और उसे मोक्ष का सोपान बतलाया गया है। साथ ही जीव दया ,इंद्रिय दमन ,सत्य ,आचौर्य, ब्रम्हचर्य संतोष, सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और तप को शील का परिवार गुरुवर ने घोषित किया है।।
रयणसार—-इस रचना में गुरुवर ने गृहस्थों तथा मुनियों के रतन्त्रय धर्म संबंधी कुछ विशेष कर्तव्यों का उपदेश, अथवा उनकी उचित अनुचित प्रवृत्तियों का निर्देश दिया है।
सिद्धभक्ति–आचार्य भगवंत की १२ गाथाओं की एक स्तुतिपरक रचना है इसमें सिद्धों की ,उनके गुणों की, तथा भेद, सुख ,स्थान ,आकृति और सिद्धि के मार्ग का यथा क्रमशः उल्लेख करते हुए अति भक्तिभाव के साथ वंदना की है। इस पर आचार्य भगवंत प्रभा चंद्र ने एक संस्कृत टीका की रचना की है ।जिसके अंत में यह लिखा है कि संस्कृता:सर्वा भक्तय पादपूज्यस्वामी कृता: प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृता: अर्थात संस्कृत की सभी भक्तियां पूज्य पाद स्वामी की बनाई हुई है। और प्राकृत की सब भक्तियां आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कृत है।
श्रुतभक्ति–यह भक्ति पाठ आचार्य श्री ने एकादश गाथाओं में बनाया है ।इसमें जैन श्रुत के आचारांगादि द्वादश अंगों का भेद प्रभेद- सहित उल्लेख करके उन्हें प्रणाम किया गया है । साथ ही ,१४ पूर्व में से प्रत्येक की वस्तु संख्या और प्रत्येक वस्तु के प्राभृतों की संख्या भी दी है।
चारित्रभक्ति—-इस भक्ति पाठ की पद्य संख्या आचार्य भगवंत ने १०रखी है और इसकी रचना अनुष्टभ छंद में की है ।इसमें श्री वर्धमान प्रणीत सामाजिक छेदो स्थापन, परिहार विशुद्धि ,सूक्ष्म संयम ,और पांच चरित्रों अहिंसादि २८ मूल गुणों तथा १०धर्मों के त्रि गुप्तियों,सकल शीलो ,परिषहों, के जय और उत्तर गुणों का उल्लेख करके उनकी सिद्धि और सिद्धि फल मुक्ति सुख की भावना उद् घृत की है।
योगी (अनगार)भक्ति–कलिकाल सर्वज्ञ का यह भक्ति पाठ २३ गाथाओं को अंग रूप में लिए हुए हैं । इसमें उत्तम रूप से योगियों की अनेक अवस्थाओं ,ऋद्धियां सिद्धियां तथा गुणों को उल्लेख पूर्वक उन्हें बड़ी भक्ति भाव के साथ नमस्कार करते हुए ,योगियों के विशेष रूप गुणों के कुछ समूह परीसंख्यानात्मक परिभाषिक शब्दों में किया हैं। इस भक्तिपाठ के द्वारा जैन साधुओं के आदर्श जीवन एवं चर्या का बहुत ही सुंदर स्वरूप समक्ष आ जाता है यह भक्ति पाठ आगम का महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
आचार्यभक्ति–इसमें आचार्य भगवंत ने १० गाथाएं रची हैं और उनमें उत्तम आचार्यों के गुणों का उल्लेख करते हुए उन्हें प्रणाम किया गया है। आचार्य परमेष्ठी किन-किन खास गुणों से विशिष्ट होने चाहिए यह इस भक्ति पाठ से भलीभांति जाना जाता है।
निर्वाणभक्ति–चारण ऋद्धि प्राप्त आचार्य महा मुनिराज ने ,इस भक्तिपाठ में २७ गाथाओं को लिपिबद्ध किया है। इसमें प्रधान रूप से निर्वाण को प्राप्त हुए तीर्थंकरों तथा दूसरे पूज्य पुरुषों के नामों का तथा उन स्थानों का नाम सहित स्मरण तथा वंदन किया है ,जहां से उन्होंने निर्वाण पद की प्राप्ति की है, साथ ही उन स्थानों के साथ ऐसे व्यक्ति विशेष की कोई दूसरी स्मृति भी अगर जुड़ी हुई है ,तो ऐसे अतिशय क्षेत्रों का भी उल्लेख किया गया है ।और उनकी तथा निर्वाण भूमियों की वंदना भी की गई है, इस भक्ति पाठ से श्रावक जनों को ऐतिहासिक तथा पौराणिक बातें एवं अनुश्रुतियों की जानकारी प्राप्त होती है, और इसी दृष्टि से यह भक्ति पाठ अपना विशेष महत्व रखता है।
शेष अगले अंक में
रमेश गंगवाल