प्राकृत दिगंबर जैन साहित्य में सबसे अधिक ग्रंथ लगभग २३ ग्रंथ श्री कुंदकुंद आचार्य के उपलब्ध हैं। जो ८४ पाहुड ग्रंथों के कर्ता के रूप में प्रसिद्ध है ।और जिनके विदेह क्षेत्र में श्री सीमंधर भगवान के समवशरण में जाकर साक्षात तीर्थंकर मुख तथा गणधर देव से बोध प्राप्त करने की कथा भी सुप्रसिद्ध है। और जिनका समय विक्रम की प्रथम शताब्दी माना जाता है। यहां पर मैं इन ग्रंथ कार आचार्य भगवन्त के संबंध में इतना और निवेदन करना चाहता हूं इनका पहला दीक्षा कालीन नाम संभवत: पदम् नंदी था परन्तु ये कौण्ड कुंदाचार्य अथवा कुंदकुंद आचार्य के नाम से ही जग में अधिक प्रसिद्ध हुए हैं। आचार्य भगवंत देवसेन आचार्य ने भी अपने दर्शन सार की गाथाओं में कुंदकुंद स्वामी के सीमंधर भगवान से दिव्य ज्ञान प्राप्त करने की बात कही है।
मर्करा के ताम्रपत्र में, जो शक संवत ३८८ में उत्कीर्ण हुआ है, उसमें कौण्डकुन्दानवय की परंपरा में होने वाले छह पुरातन आचार्यों का गुरु शिष्य के क्रम से उल्लेख किया गया है। यह मूल संघ के प्रधान आचार्य थे। सत्संयम एवं तपश्चरण के प्रभाव से इन्हें चारण ऋद्धि की प्राप्ति हुई थी । और उस के बल पर यह पृथ्वी से प्रायः चार अंगुल ऊपर अंतरिक्ष में चला करते थे इन्होंने भरत क्षेत्र में श्रुत की- जैन आगम की प्रतिष्ठा की है उनकी मान्यता एवं प्रभाव को स्वयं आचरण आदि द्वारा ऊंचा उठाया तथा सर्वत्र व्याप्त किया है अथवा हम ऐसा भी समझ लें कि आगम के अनुसार चलने को खास महत्व दिया है। ऐसा श्रवणबेलगोला के शिलालेखों से ज्ञात होता है आचार्य कुंदकुंद स्वामी बहुत ही प्रमाणिक एवं प्रतिष्ठित आचार्य हुए हैं संभवत इन की प्रतिष्ठा के कारण ही शास्त्र सभा की आदि में जो मंगलाचरण मंगलम भगवान वीरो इत्यादि किया जाता है उसमें मंगल कुंदकुंद इस रुप से इनके नाम का खास उल्लेख होता है
आचार्य कुंदकुंद स्वामी के ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार से है
प्रथमत:प्रवचन सार ,समयसार ,पंचास्ती काय यह तीनों ग्रंथ है कुंदकुंद स्वामी के ग्रंथों में प्रधान स्थान रखते हैं यह तीनों ही ग्रंथ अति महत्वपूर्ण है और अखिल जैन समाज में समान आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं । प्रवचन सार विषय ज्ञान, ज्ञेय और चरित्र रूप तत्व – त्रय विभाग से तीन अधिकारों में विभक्त हैं।
समयसार का विषय शुद्ध आत्म तत्व का है, और पंचास्ती काय का विषय -काल द्रव्य से भिन्न जीव, पुद्गल, धर्म ,अधर्म और आकाश नाम के ५ द्रव्यों का सविशेष- रूप से वर्णन है । प्रत्येक ग्रंथ अपने अपने विषय में बहुत ही महत्वपूर्ण एवं प्रमाणिक हैं। इन सभी पर आचार्य अमृत चंद्र भगवंत ने और जयसेना चार्य जी ने खास संस्कृत टीकाएं रची हैं ।आचार्य बाल चंद्रदेव ने कन्नड़ भाषा में इन ग्रंथों की टीका की हैं ।कुछ और भी दूसरी टीकाएं प्रभा चंद्र देव की संस्कृत तथा हिंदी में उपलब्ध हैं ।अमृत चंद्राचार्य की टीका अनुसार प्रवचन सार में २७५ समय सार में ४१५ और पंचास्ती काय में १७३ गाथाएं हैं । जबकि जय सेन आचार्य की टीका के पाठ अनुसार इन ग्रंथों में गाथाओं की संख्या क्रमशः ३११, ४३९और १८१ हैं संक्षेप में जैन दर्शन का मर्म अथवा सिद्धांत और उसके तत्वज्ञान को समझने हेतु तीनों ग्रंथ अत्यंत उपयोगी हैं।
अब नियमसार को समझे-आचार्य कुंदकुंद स्वामी का यह ग्रंथ भी अत्यंत महत्वपूर्ण है और अध्यात्म विषय को लिए हुए हैं इसमें सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान ,और सम्यक चरित्र के नियम और नियम से किया जाना वाले कार्य तथा मोक्ष प्राप्ति का उपाय बतलाया है । और मोक्ष के उपाय स्वरूप सम्यक दर्शन आदि का स्वरूप कथन करते हुए उनके अनुष्ठान का तथा उनके विपरीत मिथ्या दर्शन आदि के त्याग का विधान किया है और इसी को जीवन का सार निर्दिष्ट किया है।
इस ग्रंथ का हिंदी रूपांतर टीका सहित ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी ने किया है और वह प्रकाशित है।
अब हम विचार करते हैं बारस- अणुवेक्खा ( द्वादश अनुप्रेक्षा)पर, बारह भावना पर ९१ गाथाओं के द्वारा, अति सुंदर वर्णन आचार्य भगवंत ने किया है। इस ग्रंथ की सव्वे वी पोग्गला खलु इत्यादि 5 गाथाएं श्री पूज्य पाद आचार्य भगवंत के द्वारा जो कि विक्रम की छठी शताब्दी के विद्वान पुरुष हैं सर्वार्थसिद्धि के द्वितीय अध्याय के अंतर्गत दसवें सूत्र की टीका में उत्तम रूप से उद्धृत की गई है।
अब जाने दंसणपाहुड को-
इसमें सम्यक दर्शन के महत्व आदि का वर्णन ३६ गाथाओं में है और उससे यह जाना जाता है ,कि सम्यक दर्शन को ज्ञान और चरित्र पर प्रधानता प्राप्त है । वह धर्म का मूल है और इसीलिए जो सम्यक दर्शन से जीव आदि तत्वों की यथार्थ श्रद्धा जिनसे च्युत हो गई हैं उनको सिद्धि अथवा मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
आइए अब जानते हैं –
चारित्तपाहुड को- इस ग्रंथ की गाथाएं ४४ है। और उसका विषय सम्यक चारित्र है, सम्यक चारित्र को सम्यक आचरण और संयम चरण ऐसे दो भागों में विभक्त करके आचार्य भगवंत ने उनका अलग-अलग स्वरूप दे दिया है। और संयम आचरण के सागार और अनगार ऐसे दो भेद करके उनके द्वारा क्रमशः श्रावक धर्म तथा यति धर्म का अति संक्षेप में सूचनात्मक निर्देश दिया है।
अब समझें सुत्तपाहुड़ को-यह ग्रंथ २७ गाथाओं के द्वारा समझा जा सकता है। इसमें सूत्र के अर्थ और मार्गणा का उपदेश है । आगम का महत्व विस्तार से करते हुए उसके अनुसार चलने की शिक्षा दी गई है। और साथ ही सूत्र यानी कि आगम की कुछ बातों का स्पष्टता के साथ निर्देश किया गया है ।
बौद्धपाहुड़ में आचार्य भगवंत ६२ गाथाओं से आगम के सूत्र समझाते हैं, आयतन, चैत्य गृह ,जिन प्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिन मुद्रा, आत्मज्ञान, देव ,तीर्थ, अर्हन्त और प्रव्रज्या इन ११ बातों का क्रमश: आगम अनुसार बोध देते है ।इस ग्रंथ की ६१ वीं गाथा में आचार्य भगवंत कुंदकुंद स्वामी ने अपने को,-स्वयं को भद्रबाहु आचार्य भगवंत का शिष्य प्रकट किया है। ६२वीं गाथा में भद्रबाहु भगवंत जो कि १२ अंग और १४ पूर्व के ज्ञाता श्रुत केवली भगवंत थे, मंगल के रूप में जयघोष करते हुए, उन्हें स्पष्ट रूप से गुरु लिखा है।
शेष अगले अंक में।
रमेश गंगवाल