भक्ति और पूजा के संबंध में आचार्य भगवंत समंत भद्र स्वामी कहते हैं
उच्चै गोर्त्रं – प्रणते- भोर्गो दानादुपासनात्पूजा।
भक्ते:सुन्दर रुपं,स्तवनात्कीर्त स्तनों निधिषु ।।
मुनियों को प्रणाम करने से उच्च गोत्र का बंध होता है। दान देने से भोग सामग्री प्राप्त होती है, उनकी वैया वृत्ति करने से लोक में मान्यता प्राप्त होती है ,उनकी भक्ति करने से सुन्दर रूप प्राप्त होता है और उनकी स्तुति करने से इंन्द्रादि द्वारा कीर्ति की प्राप्ति होती है ।
देव शास्त्र गुरु की पूजा -भक्ति -आरती- आराधना अत्यंत विनय और श्रद्धा के साथ करना चाहिए। प्रतिमा जी को तीन बार साष्टांग प्रणाम करना चाहिए। तथा पूजा भक्ति के समय नाना प्रकार के संगीत का गायन का आलम्बन स्वयं लेना चाहिए। भक्त भक्ति की भाव विभोरता में आचिन्त्य पुण्य का संचय कर लेता है।
देव पूजा,गुरुपास्ति स्वाध्याय:संयमस्तप:
दानं चेति गृहस्थानां,षट् कर्माणि दिने दिने
यह पावन आदेश आचार्य पदम् नंदी भगवंत का है। इसमें देव पूजा को प्रथम स्थान प्राप्त है ।पूजा शब्द का अर्थ बहुत ही व्यापक है यह अलग बात है कि वर्तमान में संतवाद और पंथवाद के चलते इसे संकुचित कर दिया गया है
वस्तुतः पूजन में पंच परमेष्ठी की वंदना, नमस्कार ,स्तुति ,भक्ति ,आदि करना ,तथा जिनवाणी की सेवा व प्रचार प्रसार करना, जैन धर्म की प्रभावना करना जिन मन्दिर एवं जिन प्रतिमा का निर्माण करना -कराना आदि अनेक कार्य सम्मिलित है। आचार्य भगवान कहते हैं जिनालय जाने के नाम से ही हमारे भाव शुद्ध हो जाते हैं, परन्तु भावों के शुद्धि के साथ-साथ पूजा और भक्ति में क्रिया भी शुद्ध होनी चाहिए।
जिन मार्ग में सच्ची श्रद्धा ही वास्तविक जिन पूजन है
भक्ति और पूजा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री अपराजित भगवन लिखते हैं- “का भक्ति पूजा ?अर्हदादि गुणानुरागो भक्ति:।पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति।गन्ध-पुष्प-धूपाक्षतादिदानं अर्हदाद्युद्दिश्य द्रव्यपूजा अभ्युत्थान-
प्रदक्षिणीकरण-प्रणमनादिका का्र्यक्रिया
च वाचा गुणसंस्तवनं च।
भाव पूजा मनसा तद् गुणानुस्मरणं।
अर्हंत आदि के गुणों में अनुराग भक्ति है, पूजा के दो प्रकार स्पष्ट हैं द्रव्य पूजा और भाव पूजा अर्हन्त आदि का उद्देश्य करके जल,गंध ,पुष्प ,धूप, अक्षत, नैवेद्य, दीप फल, अर्घ्य आदि अर्पित करना द्रव्य पूजा है। तथा उनके आदर में खड़े होना, प्रदीक्षणा करना, प्रणाम करना आदि शारीरिक क्रिया और वचन से गुणों का स्तवन भी द्रव्य पूजा है, तथा मन से उनके गुणों का स्मरण करना ही भाव पूजा है”। आचार्य भगवंत के कथन में अत्यंत स्पष्ट रूप से कहा गया है, कि अष्टद्रव्य से की गई पूजन तो द्रव्य पूजा है ही, साथ ही देव- शास्त्र- गुरु की वंदना करना, नमस्कार करना, प्रदक्षिणा देना, स्तुति करना आदि क्रियाएं भी द्रव्य पूजन है। जिनेंद्र भगवान की पूजन भगवान को प्रसन्न करने के लिए नहीं है, पूजा तोअपने चित्त की प्रसन्नता के लिए की जाती है क्योंकि जिनेंद्र भगवान तो वीतरागी होने से किसी से प्रसन्न या नाराज होते ही नहीं हैं, हां उनके गुण स्मरण से हमारा मन अवश्य पवित्र हो जाता है।
इस संदर्भ में आचार्य समंत भद्र स्वामी का निम्नांकित कथन दृष्टव्य है-
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्त वैरे। तथापि थे पुण्य गुणस्मृतिर्न:, पुनाति चित्तं दुरितान्जनेभ्य:।।
वस्तुतः भगवान जिनेन्द्र वीत रागी हैं अतः उन्हें अपनी पूजा से कोई प्रयोजन नहीं है तथा वैर रहित हैं, अतः निंदा से भी उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है, तथापि उनके पवित्र गुणों का स्मरण पापियों के पाप रूप मल से मलिन मन को भी निर्मल कर देता है। उक्त छन्द को प्रस्तुत करते हुए कुछ लोग कहते हैं कि यद्यपि भगवान कुछ देते नहीं हैं तथापि उनकी भक्ति से कुछ ना कुछ मिलता अवश्य है । इस प्रकार से वह जिन पूजा को प्रकारान्तर से भोग सामग्री की प्राप्ति से जोड़ देते हैं, किंतु इसमें तो अत्यंत स्पष्ट रूप से कहा गया है, उनकी भक्ति से भक्तों का मन निर्मल हो जाता है और मन का निर्मल हो जाना ही जिन पूजा, जिन भक्ति का सच्चा फल है।
रमेश गंगवाल