तीव्र गति से दौड़ रही थी, अपनी मंजिल जाने को.
कोलकाता से चैन्ने तक, उन सब को यह पहुँचाने को.
बालेश्वर से निकली जैसे,
नज़र लग गयी थी इसको!
कोरोमण्डल हुयी कलंकित,
डिरेल हो गयी, ये देखो.
भद्रक से आने वाली इक, यशवंतपुर से कल चली.
साथ साथ थीं अपने पथ पर,
डिरेलड ट्रेन से आन लड़ी.
सौ से ज्यादा गति दोनों की,
टकरायीं विस्फोट हुआ.
तीव्र गर्जना, कोलहल,
अट्टाहस अति क्रूर हुआ.
धरा हिल गयी, अम्बर कांपा,
वन, ग्राम चीत्कार गयी.
इंजन, डिब्बे लड़े, भिड़े,
रुदन, क्रन्दन, पीर बड़ी.
कुछ बैठे थे, कुछ लेटे थे,
बात कर रहे, जग, जन की.
घबराये विस्फोट हुआ ज्यों,
चीख निकल गयी इन सबकी.
अंग भंग हो गये यहाँ तो,
पिचले, कुचले, मसल गये.
मात, पिता जी, भाई छूटे,
बहिना, पत्नी बिछड गये.
महानर्क के दुःख थे, पल में,
रोम रोम पीड़ा में था.
कभी न सोचा सपने में जो,
दुःख, वेदना, संकट था.
धूल धूसरित हुयी कल्पना,
सुख सम्बल न किंचित था.
सांस तोडती प्राण देह थीं,
अंग भंग, युद्ध स्थल सा.
कलिंग जिन, प्रभु जगन्नाथ जी,
लिंगराज की धरती पर,
प्रलय आ गयी, लहूलुहान थी,
दुखद नर्क का था मंजर.
पता चला, सब दौड़े आये,
एम्बुलेंस व डॉक्टर थे.
क्रेन, मशीने राहत दल थे,
रक्षा करने जो निकले.
घनी रात, फिर, व्याकुल, आकुल, इन प्राणों पर संकट था.
निरापराध, निरीह तीन सौ,
चले गये क्यों? जग चुप था.
माता, बहिंनें, पिता, भाई,
पत्नी, बेटी की चीख पुकार.
क्षत विक्षित देहों में ढूंढे,
अपने प्रिय ललना, भरतार.
किसकी गलती, कौन है कातिल, किसने यह संहार किया.
पल, पल, पग, पग, बढ़ते थे जो,अस्तित्व समूचा मिटा दिया.
दस, पाँच लाख, या कुछ हजार, क्या खोये अपने मिल जायेंगे?
शुष्क, खुश्क़ मन, देह, अधर जो, क्या ये सम्बल पाएंगे?
सूनी माँग है,लाठी टूटी,
सम्बल नंहों का चला गया. किस जन्म के किन पापों की,
मिली सज़ा यह बता जरा?
टूटे, थके, लुटे, पिटे ये, कैसे अब जी पायेंगे?
ऊपर वाले बता ज़रा,
हम क्यों अब प्रभु गुण गाएंगे?
इंजिनियर अरुण कुमार जैन
ललितपुर, भोपाल, फ़रीदाबाद