Saturday, September 21, 2024

जिनेंद्र पूजा विज्ञान

हमारा जीवन मंदिर की तरह से है। आत्मा की वीतराग अवस्था में ही देवत्व समाहित है । हम सभी में वह देवत्व शक्ति विद्यमान हैं, इसी देवत्व शक्ति से प्रेरित होकर, और उस शक्ति को अपने भीतर प्रकट कर लें, इसलिए हमने यह मंदिर स्थापित किए हैं। और उस मंदिर में अपने आदर्श वीतराग प्रभु ,अरहंत और सिद्ध परमात्मा को विराजित किया है। रहने के लिए घर तो पशु पक्षी भी बना लेते हैं । लेकिन मंदिर का निर्माण तो सिर्फ और सिर्फ मनुष्य ही कर पाता है मंदिर का विज्ञान अद्भुत है, मंदिर की कला अद्भुत है। हम अगर भली-भांति समझें तो मंदिर का हर स्थान चाहे वह गुम्बज हो ,चाहे वह छोटे-छोटे कलात्मक रूप से बने हुए, खिड़की- दरवाजे हों । मंदिर के प्रवेश द्वार पर लगे हुए विशाल घंटे हो, या भगवान के सम्मुख अर्पण किए जाने वाले धूप और अष्टद्रव्य हों, सबका संबंध वैज्ञानिक रूप से कलात्मकता की सूझबूझ है ।
ओंकार की प्रतिध्वनि एवं घंटे की टंकार जब गुंबद से टकराकर गूंजती है तो घंटे का धीमा धीमा नाद मन को प्रफुल्लित कर देता है। भगवान का अभिषेक और पूजा के भावों में वातावरण को पवित्र बनाने की सामर्थ्य विद्यमान है ।
अब मंदिर में प्रवेश पाकर ,अपने आत्म प्रवेश का द्वार खुल जाए ।
किस तरह से खुल जाए यह मानव की सूझबूझ है।
प्रातः स्नान करने के पश्चात साफ धुले हुए वस्त्र पहनकर पवित्रता, सादगी और सरलता से हमें जिनालय जाना चाहिए। मंदिर पहुंचने से पहले कोई और कार्य हम ना करें, हम निष्काम होने के लिए निकले हैं , तो सब कामों से मुक्त होना अति आवश्यक है। सारा मार्ग इस भावना के साथ तय करें कि हम भगवान के दर्शन करने जा रहे हैं। अपना सब कुछ समर्पित करने जा रहे हैं। अपने हाथ में श्रेष्ठ चावल होने चाहिए, और गहरे समर्पण के भाव होने चाहिए, मंदिर पहुंचकर हम पहले अपने पैर धो लें, मन में किसी प्रकार का बोझ ना रखें ,और अनुभव करें भगवान की दिव्य वाणी से व्याप्त भगवान के समव शरण में हम प्रवेश कर रहे हैं।
मन्दिर जी में घंटे की धीमी धीमी ध्वनि सुनाई देती है, हमारा मन उस ध्वनि को सुनकर पवित्र शांत हो जाता है तब मन प्राण से एक ही आवाज गूंजनी चाहिए- ओम् जय जय जय, नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु……
भगवान को सम्मुख पाकर श्रद्धा से मस्तक झुका लेना चाहिए। जमीन से माथा टेक कर हम पहला प्रणाम निवेदित करें । फिर संभल कर खड़े हो जाएं और भगवान जिनेंद्र की वीतराग छवि को अपलक देखते देखते अपने अंतस की वीणा पर जो भी स्वर मुखरित हो वह वाणी से अपने आप भगवान का स्तवन करते हुए निकले।
पश्चात पुनः भगवान के श्री चरणो में माथा टेककर अहम् को विसर्जित करने के लिए दूसरा प्रणाम निवेदित करें । और अपने साथ लाए हुए चावलों से भरी अंजलि खोलकर अपना सर्वस्व समर्पित कर दें । यह चावल इस बात के प्रतीक हैं कि हमारा जीवन भी इन्हीं की तरह से उज्जवल अखंड और आवरण से रहित हो जाए। हम जन्म मरण से मुक्त हो सकें। पश्चात उन्हें खड़े होकर देह के प्रति अपना ममत्व त्याग कर हम नो बार महामंत्र का वाचन करें और भगवान के श्री चरणों में तीसरा प्रणाम निवेदित करें ।
दर्शन की यह समग्र प्रक्रिया भावात्मक हो और पश्चात सभी वेदिकाओं पर ऐसे ही प्रणाम निवेदित करते हुए अपनी भाव दशा को निर्मल बनाएं।
भगवान की भव्य प्रतिमा को निमित्त बनाकर उनके जलाभिषेक से स्वयं को परम पद में अभिषिक्त करें ।
भगवान की पूजा जिन -अभिषेक पूर्वक ही संपन्न होती है ऐसा हमारे पूर्व आचार्यों द्वारा श्रावकों को उपदेश किया गया है। पूजा के प्रारंभ में किन्ही भी तीर्थंकर देव की प्रतिमा के समक्ष पुष्पों के द्वारा अथवा पीले चावलों के द्वारा भगवान के स्वरूप को अपनी दृष्टि के समक्ष लाने का प्रयास करना ही आह्वानन है।
उनके स्वरूप को हृदय में विराजमान करना स्थापना है, और हृदय में विराजे भगवान के स्वरूप के साथ एकाकार होना सन्निधि करण है।
द्रव्य पूजा का अर्थ सिर्फ इतना ही नहीं है कि अष्टद्रव्य अर्पित कर दिए और ना ही भाव पूजा का यह अर्थ है कि पुस्तक में लिखी पूजा को पढ़ लिया । पूजा तो गहरी आत्मीयता के क्षण हैं । वीतरागता से अनुराग और गहरी तल्लीनता के साथ श्रेष्ठ द्रव्यों को समर्पित करना एवं अपने अहंकार और ममत्व भाव को विसर्जित करते जाना ही सच्ची पूजा है।
हमारे साधु जन तो निष्परिग्रही हैं इसलिए उनके द्वारा की जाने वाली पूजा अथवा भक्ति में द्रव्य का आलम्बन नहीं होता लेकिन परिग्रही गृहस्थ के लिए परिग्रह के प्रति ममत्व भाव के परित्याग के प्रतीक रूप श्रेष्ठ अष्टद्रव्य का विसर्जन अनिवार्य होता है।
पूजा हमारी आंतरिक पवित्रता के लिए है। इसलिए पूजा के क्षणों में और पूजा के उपरांत सारे दिन पवित्रता बनी रहे , ऐसी हमारी कोशिश होनी चाहिए । पूजा और अभिषेक जिनत्व के अत्यंत सामीप्य का एक अवसर है। अतः निरन्तर इंद्रिय और मन को जीतने का प्रयास करना और जिनत्व के समीप पहुंचना हमारा कर्तव्य है।
आचार्य समन्त भद्र स्वामी भगवंत कहते हैं पूजा भगवान की सेवा है भगवान की वैया वृत्ति है जिसका लक्ष्य आत्म प्राप्ति है।
आचार्य रविषेण भगवंत पद्मपुराण जी में कहते हैं पूजा, अतिथि का स्वागत है और उन्होंने इसे अतिथिसंविभाग के अंतर्गत रखा है।
पूजा ,गहरी तल्लीनता और आत्म उपलब्धि में कारण बनती है इसलिए उपासकाध्ययन में आचार्य श्री सोमदेव स्वामी ने इसे सामायिक व्रत में रखा है।
सामायिक एक चरित्र है जो मुनियों में हमेशा रहता है, चरित्र ही निश्चय से धर्म है, धर्म मोक्ष का कारण है अतः पूजा भी मोक्ष का कारण है।
पूजा ,ध्यान भी है ,तभी तो भाव संग्रह में आचार्य भगवान भावसेनाचार्य ने इसे पदस्थ ध्यान में शामिल किया है ध्यान एक तप है जिससे कर्मों की निर्जरा होती है कर्म निर्जरा पूर्वक ही मोक्ष होता है, अतः पूजा मोक्ष का साधन है।
पूजा -आत्मान्वेषण की प्रक्रिया है इसे स्वाध्याय भी कहा गया है जिन पूजा से लाभान्वित होने में हमें कसर नहीं रखनी चाहिए ,पूरा लाभ लेने की भरसक कोशिश करनी चाहिए ।
पूजा के आठ द्रव्य अहम् के विसर्जन और हमारे आत्म विकास की भावना के प्रतीक हैं।
क्रमशः – शेष अगले अंक में समाप्य

रमेश गंगवाल

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