जैन समाज में तत्वार्थ सूत्र के रचयिता आचार्य श्री उमा स्वामी भगवंत के नाम से जाने जाते हैं वर्तमान समय में यही नाम उनका प्रचलित है। लेखक प्रकाशक विद्वान जन प्रायः सभी आचार्य भगवंत का नाम उमा स्वामी कहकर ही स्मरण करते हैं। वैसे भी तत्वार्थ सूत्र के जितने भी संस्करण प्रस्तुत हुए हैं ,उनमें सभी में ग्रंथ कर्ता का नाम उमा स्वामी आचार्य ही प्रकट कर स्मरण किया है। जबकि श्वेतांबर संप्रदाय में ग्रंथ कर्ता स्वामी का नाम आचार्य उमा स्वाति भगवंत कहकर स्मरण किया गया है। अब हम को समझना यह है कि उक्त ग्रंथ कर्ता का नाम वास्तविक रूप से उमा स्वाति था या उमा स्वामी ,और इस बात की पुष्टि किस तरह से, कहां से हो ,इस हेतु आगम साहित्य से जो कुछ ज्ञात हुआ है ,उसे जाने।
श्रवणबेलगोला के जितने भी शिलालेख प्राप्त हुए हैं उन शिलालेखों में आचार्य भगवंत का नाम उमा स्वाति ही कहा गया है । उमा स्वामी नाम का परिचय किसी भी शिलालेख में उत्कीर्ण नहीं हुआ है।
शिलालेख क्रमांक 47 में उत्कीर्ण है-
अभूदुमास्वातिमुनिश्वरोसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्घ्रपिच्छ: ।
शिलालेख क्रमांक 105 में उत्कीर्ण है
श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार।
शिलालेख क्रमांक 108 में उत्कीर्ण है-
अभूदुमास्वातिमुनि:पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी।
सूत्रीकृतं में जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुंगवेन।।
इन शिलालेखों में पहला शिलालेख शक् संवत् १०३७ का है तथा दूसरा १३२० का है और तीसरा १३५५ का लिपिबद्ध किया हुआ है । इससे यह बात तो स्पष्ट हो गई की लगभग ८५० वर्ष पहले से दिगम्बर परम्परा में तत्वार्थ सूत्र के कर्ता का नाम उमा स्वाति प्रचलित था। उसके पश्चात भी कई १०० वर्ष तक बराबर यही परिचय प्राप्त रहा । इन्हीं उमा स्वाति आचार्य भगवंत को गृद्ध पिच्छाचार्य के नाम से भी जाना जाता है । आचार्य भगवंत विद्यानंद स्वामी ने अपने श्लोक वार्तिक ग्रंथ में इस नाम का उल्लेख किया है
प्रभु वर्धमान स्वामी की उत्कृष्ट परंपरा में आचार्य भगवंत पदम् नंदी हुए जिन का प्रसिद्ध नाम कुंदकुंद आचार्य स्वामी है। इनके सुयोग्य शिष्य आचार्य भगवंत उमा स्वाति या उमा स्वामी हुए, इनका काल संभवत :179 से 220 तक माना गया है इनका समय नंदी संघ की पट्टा वली के अनुसार वीर निर्वाण संवत ५७१ है जोकि विक्रम संवत १०१ में आता है विद्वत जन बोधक में एक पद उल्लेखित है-
वर्षसप्तशते चैन सप्तत्या च विस्मृतौ।
उमास्वातिमुनिजाति: कुन्दकुन्दस्तथैव च।।
वीर निर्वाण संवत ७७० में उमा स्वामी मुनिराज हुए, उसी समय कुंदकुंद आचार्य भगवंत हुए नंदी संघ की पट्टा वली में बताया गया है कि उमा स्वामी ४० वर्ष ८ महीने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे उनकी आयु ८४ वर्ष की रही थी । और विक्रम संवत् १४२ में उनके पद पर लोहा चार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुए ।
प्रोफेसर हार्नले, डॉक्टर पीटरसन ,तथा डॉ० सतीश चंद्र ने इस पट्टा वली के आधार पर उमा स्वामी को ईसा की प्रथम शताब्दी का माना है ।आचार्य उमा स्वामी भगवंत प्रवृद्ध प्रज्ञा धनी ,बहुशास्त्रज्ञ, आगमज्ञ ,संस्कृत के प्रकांड तलस्पर्शी विद्वान, तार्किक तथा बहुआयामी तत्वज्ञ साधक एवं लेखक थे इसीलिए उनके लिए कहा गया है-
तत्वार्थसूत्रकरत्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम्।
वन्दे गणेन्द्रसंजातमुमास्वातिमुनिश्वरम्।।
तत्वार्थ सूत्र के कर्ता गृद्धपिच्छ से युक्त गणीन्द्र संजात, उमा स्वाति मुनीश्वर को मैं नमस्कार करता हूं।
तत्वार्थ सूत्र के कर्ता का नाम उमा स्वाति बतलाया गया है और उन्हें श्रुत केवली देशीय लिखा गया है संभवतः’ गणीन्द्र संजात’ का अर्थ भी श्रुत केवली देशीय ही जान पड़ता है।
नंदी संघ की गुर्वा वली में भी तत्वार्थ सूत्र के कर्ता का नाम उमा स्वाति भगवन दिया गया है।
जैन सिद्धांत भास्कर की चौथी किरण में प्रकाशित श्री शुभ चंद्र आचार्य भगवंत की गुर्वावली में भी यही नाम उल्लिखित है यह शुभ चंद्र आचार्य भगवंत १६वीं और १७वीं शताब्दी में हुए हैं।
नंदी संघ की पट्टावली में भी कुन्दकुन्द आचार्य भगवंत के पश्चात छठवें स्थान पर उमा स्वाति नाम ही पाया गया है ।
बाल चंद्र मुनि की बनाई हुई तत्वार्थ सूत्र की कन्नड़ी टीका में भी उमा स्वाति नाम का ही समर्थन है ,साथ ही उसमें गृद्धपिच्छ आचार्य नाम भी दिया हुआ है। बालचंद्र मुनि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के विद्वान हुए हैं।
विक्रम की १६ वीं शताब्दी से पहले ऐसा कोई भी ग्रंथ अथवा शिलालेख देखने में नहीं आया है, जिसमें तत्वार्थ सूत्र के कर्ता का नाम उमा स्वामी लिखा हो । १६ वीं शताब्दी के बने हुए श्री श्रुत सागर सूरी के ग्रंथों में इस नाम का प्रयोग जरूर प्राप्त हुआ है । श्रुत सागर सूरी ने अपनी श्रुत सागरी टीका में स्थान- स्थान पर उमा स्वामी नाम दिया है और औदार्य चिंतामणि नाम के ग्रंथ में श्रीमानुमाप्रभुर नन्तरपूज्यपाद: इस वाक्य में आपने “उमा” के साथ प्रभु शब्द लगाकर और भी स्पष्ट रूप से उमा स्वाति की जगह उमा स्वामी नाम को सूचित किया है ऐसा प्रतीत होता है उमा स्वाति की जगह उमा स्वामी यह नाम श्रुतसागर सूरी का ही निर्देश किया हुआ है ,और उनके समय से ही हिंदी भाषा के ग्रंथों में यह नाम प्रचलित हुआ है ,वर्तमान में तत्वार्थ सूत्र के कर्ता के रूप में दिगंबर परंपरा में उमा स्वामी कहा जाने लगा है और श्वेतांबर परंपरा में उमा स्वाति कहा जाता है।
रमेश गंगवाल