Sunday, September 22, 2024

श्रुतपंचमी है ज्ञान की आराधना का महान पर्व: डॉ. सुनील जैन संचय

जैन परंपरा में आगम को भगवान महावीर की द्वादशांगवाणी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। श्रुत परंपरा जैन -धर्म -दर्शन में ही नहीं वैदिक परंपरा में भी चरमोत्कर्ष पर रही है। इसी के फलस्वरूप वेद को श्रुति के नाम से संबोधित किया जाता रहा। श्रुत पंचमी जैन धर्म का प्रमुख पर्व है। जैन धर्म की मान्यतानुसार आचार्य पुष्पदंत जी महाराज एवं भूतबली जी महाराज ने करीब 2000 वर्ष पूर्व गुजरात के गिरनार पर्वत की गुफाओं में ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन ही जैन धर्म के प्रथम ग्रन्थ “श्री षटखंडागम” की रचना को पूर्ण किया था। इसी कारण ज्येष्ठ शुक्ल के पंचमी दिन श्रुत पंचमी का पर्व मनाया जाता है। पहले भगवान महावीर केवल उपदेश देते थे और उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) उसे सभी को समझाते थे, क्योंकि तब महावीर की वाणी को लिखने की परंपरा नहीं  थी। उसे सुनकर ही स्मरण किया जाता था इसीलिए उसका नाम ‘श्रुत’ था।  एक कथा के अनुसार दो हजार वर्ष पहले जैन धर्म के एक प्रमुख संत धरसेनाचार्य को अचानक यह अनुभव हुआ की उनके द्वारा अर्जित जैन धर्म का ज्ञान केवल उनकी वाणी तक सीमित है। उन्होंने सोचा की शिष्यों की स्मरण शक्ति कम होने पर ज्ञान वाणी नहीं बचेगी। ऐसे में मेरे समाधि लेने से जैन धर्म का संपूर्ण ज्ञान खत्म हो जाएगा। तब धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत एवं भूतबलि की सहायता से “षटखण्डागम” की रचना की और उसे ज्येष्ठ शुक्ल की पंचमी को प्रस्तुत किया। देश की प्राचीन भाषा प्राकृत में लिखे इस शास्त्र में जैन धर्म से जुड़ी कई अहम जानकारियां हैं। इस ग्रंथ में जैन साहित्य, इतिहास, नियम आदि का वर्णन है जो किसी भी धर्म के लिए बेहद आवश्यक होते हैं।

ज्ञान आराधना का पर्व: श्रुत पंचमी पर्व ज्ञान की आराधना का महान पर्व है, जो जैन भाई-बंधुओं को वीतरागी संतों की वाणी सुनने, आराधना करने और प्रभावना करने का संदेश देता है। इस दिन मां जिनवाणी की पूजा अर्चना सभी करते हैं। इस पावन दिवस पर श्रद्धालुओं द्वारा षटखण्डागम, श्री धवल, महाधवलादि ग्रंथों को विराजमान कर श्रद्धाभक्ति से महोत्सव के साथ उनकी पूजा-अर्चना की जाती है और सिद्धभक्ति का पाठ किया जाता है। इस दिन जैन धर्म के लोग जिनवाणी की शोभा यात्रा निकालते हैं। व्याख्यान, प्रवचन एवं विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। इसी दिन पहली बार जैन धर्मग्रंथ लिखा गया था।
भारतीय संस्कृति का अक्षय भंडार है जैन साहित्य: जैन परंपरा का साहित्य भारतीय संस्कृति का अक्षय भंडार है। जैन आचार्यों ने ज्ञान -विज्ञान की विविध विधाओं पर विपुल मात्रा में स्व- परोपकार की भावना से साहित्य का सृजन किया। आज भी अनेक शास्त्र भंडारों में हस्तलिखित प्राचीन ग्रंथ विद्यमान हैं ।जिनकी सुरक्षा, प्रचार-प्रसार, संपादन, अनुवाद निरंतर हो रहा है। प्राचीनकाल में मंदिरों में देव प्रतिमाओं को विराजमान करने में जितना श्रावक पुण्य लाभ मानते थे उतना ही शास्त्रों को ग्रंथ भंडार में विराजमान करने का भी मानते थे। यह श्रुत पंचमी महापर्व हमें जागरण की प्रेरणा देता है कि हम अपनी जिनवाणी रूपी अमूल्य निधि की सुरक्षा हेतु सजग हों तथा ज्ञान के आयतनों को प्राणवान स्वरूप प्रदान करें।
जैन पांडुलिपियां हमारी अमूल्य धरोहर: जैन प्राचीन पांडुलिपियों में हमारी सभ्यता आचार-विचार और अध्यात्म विकास की कहानी समाहित है। उस अमूल्य धरोहर को हमारे पूर्वजनों ने अनुकूल सामग्री एवं वैज्ञानिक साधनों के अभाव में रात-दिन खून पसीना एक करके हमें विरासत में दिया है। इस पर्व पर संकल्प लें कि पांडुलिपियों का सूचीकरण करके व्यवस्थित रखवाया जाय, लेमिनेशन करके अथवा माइक्रोफिल्म तैयार करवा कर सैकड़ों हजारों वर्षों तक के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है और अप्रकाशित पांडुलिपियों को प्रकाशित किया जाए। मां जिनवाणी को संरक्षित करने, उसका हम संरक्षण और संवर्द्धन करने के लिए आगे आएं। आज तो ग्रन्थ रचना सुलभ है एक प्रति बनने के बाद अल्प समय में मशीनो द्वारा उसकी सैकड़ो प्रतियाँ छपकर तैयार हो जाती हैं किन्तु उस समय जब कागज भी नहीं था तब हमारे श्रमण-जैनाचार्यों पांडुलिपि पर लेखन कार्य करते थे कितना कष्टप्रद होगा वह लेखन एक पन्ना लिखने में ही समय का बहुधा भाग चला जाता है जबकि आचार्यो ने हजारों-लाखों की संख्या में गाथाएँ लिखी हैं।
अनमोल धरोहर प्राकृत भाषा: श्रुत पंचमी को प्राकृत भाषा दिवस के रूप में भी मनाते हैं। प्राकृत भाषा भारत की भाषा है। यह जनभाषा के रूप में लोकप्रिय रही है। जनभाषा अथवा लोकभाषा ही प्राकृत भाषा है । इस लोक भाषा ‘प्राकृत’ का समृद्ध साहित्य रहा है, जिसके अध्ययन के बिना भारतीय समाज एवं संस्कृति का अध्ययन अपूर्ण रहता है। प्राकृत में विविध साहित्य है। यह जैन आगमों की भाषा मानी जाती है। भगवान महावीर ने भी इसी प्राकृतभाषा के अर्धमागधी रूप में अपना उपदेश दिया था। राष्ट्र की यह अनमोल धरोहर प्राकृत भाषा आज इतनी उपेक्षित क्यों है? इस भाषा को आज अपनी अस्मिता एवं पहचान बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। प्राकृत भाषा प्राचीन काल में जनभाषा के रूप में एक समृद्ध भाषा रही है। विदेशियों ने भी प्राकृत भाषा एवं उसके साहित्य का अध्ययन किया है जिनमें याकोबी, वूल्नर एवं रिचर्ड पिशेल के नाम प्रमुख हैं। रिचर्ड पिशेल ने प्राकृत भाषाओं पर जर्मन में व्याकरण ग्रन्थ लिखा था, जिसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित है। वर्तमान में इसका विशाल साहित्य उपलब्ध है, किंतु सरकार की ओर से इसके व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु अभी तक अत्यल्प ही प्रयास हुए हैं। प्राकृत भाषा के संरक्षण और सम्वर्द्धन के लिए भारत सरकार द्वारा भाषाओं की मान्य आठवीं अनुसूची में प्राकृत भाषा को भी सम्मिलित किया जाए, ताकि इसकी चरणबद्ध रूप में निरंतर प्रगति होती रहे। साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। क्योंकि यदि आज हम गौतम गणधर की वाणी को सुन रहे हैं, पढ़ रहे है तो वह श्रुत की है। यदि शास्त्र नहीं होते तो हम उस प्राचीन इतिहास को नहीं जान सकते थे। यह पर्व ज्ञान की आराधना का महान पर्व है। साथ ही श्रुत के संरक्षण, संवर्धन के प्रति अपने कर्त्तव्य एवं दायित्वों को भी निभाने का दिन है।
परुसा सक्कअ बंधा पाउअ बंधोवि होउ सुउमारो।
पुरुसमहिलाणं जेत्तिअमिहन्तरं तेत्तिअमि माणं।।

-डॉ. सुनील जैन संचय
(आध्यत्मिक चिंतक व स्तम्भकार)

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