तीर्थंकर महावीर की वाणी लिपबद्ध कर जन-जन तक पंहुचाने का महान दिन, आज जैनधर्म का ज्ञान पर्व
आज से 1866 वर्ष पूर्व आज ही यानी जेष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन भगवान महावीर के उपदेशों को षट्खण्डागम ग्रंथ के रूप में श्रवण के आधार पर लिपिबद्ध कर के भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित किया था। अत: आज के दिन को श्रुत पंचमी के नाम से जाना जाता है। चूंकि यह ग्रंथ प्राकृत भाषा में लिपि बद्ध है अत: इस दिन को प्राकृत भाषा दिवस के रूप में भी मनाते है। यह दिवस जैन धर्मावलंबियों के लिए जन जन तक धर्म ज्ञान पंहुचाने का एक प्रयोजनीय दिन है। तीर्थंकरों के द्वारा केवलज्ञान प्राप्ति उपरांत उनकी दिव्य ध्वनि प्रतिदिन पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह एवं अर्धरात्रि में चार बार छह -छह घड़ी पर्यंत खिरती रहती है। यह दिव्य ध्वनि सात सौ लघुभाषा और अठारह महाभाषा में खिरती है। समवशरण में उपस्थित सभी गति के जीव अपनी अपनी भाषा में इसे समझ लेते है। भगवान महावीर की वाणी श्रुत रूप में रही, जो अंतिम केवली जम्बू स्वामी तक निरंतर प्रवाहमान होती रही। वर्षों तक उनके उपदेश आचार्यों, मुनियों एवं योग्यजनों द्वारा याददाश्त के आधार पर जनमानस में प्रचलित रहे। भद्रभाहू अंतिम श्रुतकेवली थे, इनके पश्चात क्षयोपशम ज्ञान की मन्दता बढ़ने लगी एवं इस तरह अंगों एवं पूर्व ज्ञान का ह्रास होने लगा। भगवान महावीर के निर्वाण के 683 वर्ष व्यतीत होने पर अंगों और पूर्व के शेष ज्ञान के भी लुप्त होने एवम कालांतर में शास्त्रों के घटते ज्ञान से चिंतित होकर कि महावीर की श्रुत परंपरा, बुद्धि के निरंतर ह्रास के कारण केवल सुनकर सीखने के आधार पर नहीं चल सकती, यह जानकर, अपनी शेष अत्यल्प आयु में, अवशेष ज्ञान को लिपिबद्ध कराने हेतु आचार्य धरसेन ने महिमा नगरी में हो रहे मुनि सम्मेलन से दो योग्य मुनियों आचार्य पुष्पदंत और आचार्य भूतबलि को योग्य जानकर अपने आश्रय स्थल, गिरनार पर्वत, गुजरात में स्थित चंद्र गुफा में अपनी स्मृति में सुरक्षित संपूर्ण ज्ञान को लिपिबद्ध कराया। परिणामत: “षट्खण्डागम” नामक ग्रंथ की रचना हुई। षट्खण्डागम दिगम्बर साधु आचार्य धरसेन के द्वारा दिए गए आगम के मौखिक उपदेशों पर आधारित है। ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन चतुर्विद संघ की उपस्थिति में इस महान ग्रंथ की पूजा अर्चना करके भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित किया गया। तभी से आज का दिन श्रुत पंचमी के नाम से विख्यात हुआ।
षट्खण्डागम (छ: भागों वाला धर्मग्रंथ) दिगम्बर जैन संप्रदाय का सर्वोच्च और सबसे प्राचीन पवित्र धर्मग्रंथ है। षट्खण्डागम (छक्खंडागम) सूत्र– इस आगम ग्रन्थ में छह खण्ड हैं-
1.जीवट्ठाण (जीवस्थान) 2.खुद्दाबंध (क्षुद्रकबन्ध) 3.बंधसामित्तविचय (बन्धस्वामित्व) 4.वेयणा (वेदना) 5.वग्गणा (वर्गणा) 6.महाबन्ध।
प्रथम तीन भाग कर्म दर्शन की व्याख्या आत्मा के दृष्टिकोण से करते हैं, जो कि बंधन का कारक है एवं अंतिम तीन भाग कर्म की प्रकृति और सीमाओं की चर्चा करते हैं। पंचपरमेष्ठी आराधक णमोकार महामंत्र जिसे विश्वशांति मंत्र के नाम से जाना जाता है इसी षट्खंडागम ग्रन्थ का मंगलाचरण है। षट् खंडागम ग्रन्थ पर आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य समन्तभद्र जैसे आचार्यों ने टीकाएं, जो वर्तमान में अनुपलब्ध है, लिखकर धर्मज्ञान उपलब्ध कराया था। वर्तमान में आठवीं सदी के आचार्य वीरसेन स्वामी की धवला नामक टीका उपलब्ध है। हम पूजा पाठ को धर्म की मात्र क्रिया समझ कर पंच परमेष्ठि का गुण गान करते है। जिनवाणी हमे ज्ञान देती है कि ज्ञान पूर्वक क्रिया ही फल प्रदायनी होती है। अतः पूजापाठ में समाहित अध्यात्म रुपी तत्व प्राप्त करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी मानेंगे, तभी हम सच्चे अर्थों में जिनवाणी की सेवा कर सकते है। आज मन्दिरों की अलमारियों में बंद आगम शास्त्र- जिनवाणी को बाहर निकालकर स्वाध्याय, शास्त्र चर्चा, वार्तिक, वचनिका से आत्म-परोपकार की भावना जागृत कर सकते हैं। जैन धर्म में देव, शास्त्र एवं गुरु की पूजा का विशेष महत्व है। जैन धर्मावलंबी सेद्धांतिक देशना से लिपिबद्ध जिनवाणी की पूजा, आराधना करके शास्त्र भंडारों का उचित रखरखाव, देखभाल, सुरक्षा- पूर्व में भी हमारे कई धर्म ग्रंथो को विधर्मियो द्वारा अपने कब्जे में लिए गए है, आत्म कल्याण के उद्देश्य से स्वाध्याय करने का नियम लेकर शास्त्रों का धर्मरक्षार्थ सदुपयोग किया जा सकता है। समग्र समाज आचार्य धरसेन, आचार्य पुष्पदंत, आचार्य भूतबली के त्याग, तपस्या और पुरुषार्थ का चिर ऋणी है। भावी पीढ़ी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए भगवान महावीर की वाणी को स्वाध्याय चिंतन, मनन द्वारा श्रुत व लिपि के रुप में सुरक्षित, संरक्षित करने का संकल्प करे। धर्मशास्त्र ही हमारी जीवन नैया का खिवैया है। महावीर की वाणी को जन जन तक पहुंचाकर अपने नाम के साथ विरासत में मिले जैन उपनाम को सार्थक बना सकते है।
संकलन आधार- श्रुत स्कंध महामंडल विधान।
भागचंद जैन मित्रपुरा
अध्यक्ष जैन बैंकर्स फोरम, जयपुर।