Sunday, September 22, 2024

श्रुत आराधना का महापर्व…श्रुत पंचमी

आलेख: शिक्षा गौरव विद्यारत्न प्रतिष्ठाचार्य डॉ विमलकुमार जैन

शब्द ब्रह्म अनादि निधन है।वह स्यात्कार पद से चिन्हित होने से द्वादशांग रुप है। यद्यपि यह अनादि काल से प्रवाह रुप से चला आ रहा है और अनंत काल तक विद्यमान रहेगा,न इसका आदि है न अंत ,फिर भी तीर्थंकरों की दिव्य देशना की अपेक्षा से यह सादिसान्त भी है। तीर्थंकर देव की दिव्यध्वनि प्रतिदिन पूर्वाह्न, मध्यान्ह, अपराह्न और अर्द्धरात्रि में ऐसे चार बार छह..छह घड़ी पर्यन्त खिरती रहती है।यह दिव्य ध्वनि सात सौ लघुभाषा और अठारह महाभाषा में खिरती है। अथवा वह सर्वभाषा रुप है? क्योंकि समवशरण में उपस्थित सभी देव, मनुष्य और तिर्यंच अपनी.. अपनी भाषा में इसे समझ लेते हैं। तीन लोक में चर..अचर वस्तुयें हैं।इन सभी के अतीत काल को, वर्तमान काल को और भविष्य में होने वाले अनंत काल को केवली भगवान एक समय में एक साथ ही देख लेते हैं और जान लेते हैं। इसीलिए उनका वह दिव्यज्ञान अथवा केवलज्ञान कहलाता है।केवली भगवान सब कुछ जान रहे हैं किन्तु उनकी दिव्यध्वनि में उतना प्रतिपादित नहीं हो सकता जितना वे प्रतिपादित करते हैं।गणधर देव उतने सबको अपने क्षयोपशम ज्ञान से ग्रहण नहीं कर सकते हैं और जितना वे समझ सकते हैं उतना वे कह नहीं सकते, जितना कह सकते हैं उतना वे श्रुत रुप से निबद्ध नहीं कर सकते हैं, जितना वे निबद्ध कर सकते हैं वह सब द्वादशांग रुप से जैन वाड़यमय में प्रसिद्ध (विद्धमान) है। आचार्य श्री यतिवृषभ ने तिलोयपण्णति में कहा है कि..जिस दिन भगवान महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ उस दिन उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ।जब गौतम स्वामी सिद्धत्व को प्राप्त हो गये तब सुधर्म स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और जब सुधर्म स्वामी को मोक्ष प्राप्ति हुई तब जम्बूस्वामी अन्तिम श्रुतकेवली हुए। सभी तीनों को प्रात:(प्रत्यूष)काल की वेला में मोक्ष प्राप्ति व सायंकाल केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।ये तीनों ही अनुबद्ध केवली थे।इस प्रकार 62 वर्षों तक (12+12+38) तीनों केवलियों की ज्ञान ज्योति प्रकाशित होती रही। इसके पश्चात पांच श्रुत केवली हुए जिनमें 14वर्षौं तक विष्णुनन्दि,16वर्षौं तक नन्दिमित्र,22वर्षौं तक अपराजित,19वर्षौं तक गोवर्द्धन और 29 वर्षौं तक भद्रबाहु ने (100वर्षौं तक )ज्ञान ज्योति को प्रज्ज्वलित रखा। भगवान महावीर की वाणी श्रुत (मौखिक)रुप में थी,जो अंतिम केवली जम्बूस्वामी तक निरन्तर प्रवहमान रही। भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली थे इनके पश्चात क्षयोपशम ज्ञान की मन्दता.हीनता बढ़ने लगी अतः बुद्धि की क्षीणता से अंगों एवं पूर्व ज्ञान का ह्रास होने लगा।वीर निर्वाण के 683वर्ष व्यतीत होने पर अंगों और पूर्व के शेष ज्ञान के भी लुप्त होने का प्रसंग आया तो सोरठ देश के महागिरि गिरनार पर्वत की गहरी चन्द्रगुफा में अन्तर्मग्न आचार्य धरसेनस्वामी का ध्यान रात्रि के अंतिम प्रहर में भग्न हुआ तो वे श्रुत परम्परा की सुरक्षा के विकल्प से उद्विग्न हो उठे।वे विचार करने लगे कि बुद्धि के निरन्तर ह्रास के कारण भगवान महावीर स्वामी की श्रुत परम्परा अब केवल सुनकर सीखने के आधार पर नहीं चल सकती है अतः उसे लिपिबद्ध करना आवश्यक हो गया है। आचार्य धरसेन अंग परम्परा के अंतिम पारगामी थे,वे निमित्त ज्ञानी व श्रेष्ठ मंत्र ज्ञाता भी थे, अतः उन्होंने अपनी आयु का अत्यल्प समय जानकर शेष श्रुतज्ञान की सुरक्षार्थ महिमा नगरी में चल रहे मुनि सम्मेलन को एक पत्र प्रेषित कर समस्त मुनिराजों को नमन-वंदन करते हुए निवेदन किया कि-मेरी आयु अत्यल्प है, मेरे पश्चात श्रुत का विच्छेद हो जावेगा अतः श्रुत को धारण करने वाले दो प्रज्ञावान शिष्यों को शीघ्र भिजवाने का अनुग्रह करें। मुनि सम्मेलन आचार्य धरसेनस्वामी के पत्र का अभिप्राय ज्ञात कर महासेनाचार्य ने दो प्रज्ञावान मुनियों को भेज दिया।कुछ दिनों पश्चात रात्रि के अंतिम प्रहर में धरसेनाचार्य ने स्वप्न में कुन्दपुष्प, चन्द्रमा, शंख सदृश शुभ्र श्वेत वर्ण युक्त सुन्दर दो युवा वृषभों को तीन प्रदक्षिणा कर चरणों में नर्मीभूत होते देखा। आचार्य अत्यंत हर्षित हो निद्रा से उठकर”जयदु सुद देवदा”अर्थात श्रुतदेव जयवन्त हों ऐसा कहकर सन्तुष्ट हुए।प्रात:काल ही योग्यतम शिष्यों को देख अत्यंत प्रसन्न मन से श्रुत को लिपिबद्ध करने का आदेश दे दिया। पूज्य आचार्य के आदेश की पालना करते हुए आचार्य पुष्पदंत और आचार्य भूतबली ने आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व ग्रन्थराज षट्खंडागम‌ की रचना की। यह ग्रंथ.. जीवट्टाण,खुद्दाबन्ध,बंधसामित्तविचय,वेयणा,वग्गणा और महाबन्ध नामक छह खण्डों में विभक्त होने से षट् खंडागम कहा जाता है।ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन इस श्रेष्ठ ग्रंथ का षट्खंडागम रुप प्रथम श्रुतस्कन्ध का अवतरण हुआ। भूतबली आचार्य ने इसे पुस्तकारुढ़ करके चतुर्विध संघ के साथ महामहोत्सव मनाकर अत्यंत हर्षोल्लास से पूजा विधान कर भव्याति भव्य महामंगल महोत्सव मनाया। ऐसे परम उपकारी आचार्य धरसेनस्वामी व पुष्पदंत भूतबली आचार्य का समग्र जैन समाज पर उपकार है,जो आज श्रुत देवता के रूप में हमें यह अमोघ रत्न षट्खंडागम के दुर्लभ दर्शन हो रहे हैं। किन्तु खेद है कि आज समग्र समाज जिनवाणी स्वाध्याय,पठन पाठन से दूर होता चला जा रहा है। श्रुतपंचमी के रूप में विख्यात यह महापर्व हमें जाग्रत कर मां जिनवाणी की संरक्षा ,सुरक्षा के संकल्प की पूर्ति का स्मरण कराता है।आज आवश्यकता है जैन साहित्य , संस्कृति व अनमोल ग्रंन्थों की सुरक्षा की जो हमारी धरोहर है। आचार्य भगवंत टेर..टेर कर कह रहे हैं कि..हे! जिनवाणी मां के सपूतो आज आपके कन्धों पर यह भार है कि अपनी जननी व जिनवाणी मां के ऋण से कैसे उऋण हो सको? संसार..सागर में निमग्न प्राणी मात्र के लिए यह जिनवाणी (श्रुत)अमृत की भांति है जो अमरता प्रदान कराने में हमें सहायता करती है।अज्ञानता को दूर कर सम्यगज्ञान रुपी प्रकाश कराने वाला यही श्रुत,(जिनवाणी) है।कहा भी है,.. 1.जिनवाणी जग मैय्या जनम दुःख मेट दो।2.. यहां वहां जहां तहां मत पूछो कहां कहां है जिनवाणी मां..3..माता तू दया करके कर्मो से छुड़ा देना।हम अपनी हर विपदा के लिए मां को पुकारते हैं और वह प्रतिसमय हमारी रक्षार्थ तत्पर रहती है, फिर हमारा मां के प्रति क्या कर्त्तव्य है? विचारणीय है। आज मन्दिरों की अलमारियों में क़ैद मां जिनवाणी को स्वतन्त्र कराकर स्वाध्याय,चर्चा, वचनिका से स्वपरोपकार की अलख जगा सकते हैं।हम मात्र पूजा पाठ के कर्म काण्ड में उलझकर रह गये है,इसका तात्पर्य यह नहीं कि पूजा पाठ का निषेध है। यहां मात्र मेरा कहना मात्र कोरी क्रिया से है,ज्ञान पूर्वक क्रिया फल प्रदायनी होती है। अतः पूजा पाठों में समाये हुए अध्यात्म रुपी नवनीत को प्राप्त करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है तभी हम सच्चे अर्थों में जिनवाणी सेवक, जिनवाणी मां के सपूत कहलाने योग्य है।आज इसकी महती आवश्यकता है।पंचपरमेष्ठी रुप णमोकार महामंत्र जिसे विश्वशांति मंत्र के नाम से जाना जाता है इसी षट्खंडागम ग्रन्थ का मंगलाचरण है। षट्खंडागम का उद्गम महाकर्म,प्रकृतिप्राभृत के चौबीस अनुयोग द्वारों से भिन्न-भिन्न अनुयोग द्वारा एवं उनके अवान्तर अधिकारों से हुआ है। षट् खंडागम ग्रन्थ पर कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य समन्तभद्र जैसे समर्थ आचार्यों ने टीकाएं लिखकर हमारा उपकार किया है। किन्तु खेद है कि वे आज तक अनुपलब्ध है। वर्तमान में आठवीं सदी के आचार्य वीरसेन स्वामी की धवला नामक टीका उपलब्ध है जो अत्यंत उपयोगी है। समग्र समाज आचार्य धरसेन, आचार्य पुष्पदंत, आचार्य भूतबली के त्याग, तपस्या और पुरुषार्थ का चिर ऋणी है जो ऐसा महान रत्न हमें हस्तगत हुआ। उनके पुरुषार्थ को कोटि-कोटि वंदन,नमन। अतः हमें संकल्प लेना चाहिए कि भगवान महावीर की वाणी को स्वाध्याय चिंतन.. मनन द्वारा श्रुत व लिपि के रुप में सुरक्षित संरक्षित करें। शास्त्र ही हमारा जीवन है। इसी मंगल भावना के साथ… अध्यक्ष.. राजस्थान जैन साहित्य परिषद‌

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