सीकर। देवीपुरा स्थित चन्द्रप्रभु भवन में विराजित छाणी परंपरा के सप्तम पट्टाधीश प. पू. आचार्य श्री विवेक सागर महाराज ने प्रातः धर्म सभा सम्बोधित करते हुए अपनी मृदु वाणी में बताया कि जीवन में सुख और दुःख कर्मों के अनुसार ही प्राप्त होते हैं। पुण्य कर्मों के फलस्वरूप सुख का अनुभव होता हैं और पाप कर्मों के परिणाम स्वरूप दुःख भोगना पड़ता है। जीवन में दुःख-दारिद्र व परेशानियां बढ़ रही है तो समझ ले कि ये किसी पाप का फल भोग रहे है। पुण्य का जो फल आपके सामने है वो आत्म सन्तुष्टि है, पाप का प्रत्यक्ष फल सन्ताप है। आप चाहते हो पुण्य मिले तो पुण्य के कार्य को करो। पाप के फल को भुगतना कोई नहीं चाहता पर कार्य गलत करते है, पाप की ही करते हैं। आचार्य श्री ने बताया कि धर्म की राह ही सर्वोत्तम है इसलिए धर्म का सम्मान करो, उसकी कद्र करो। जिनशासन में जन्म हुआ तो जिनेन्द्र भगवान की आराधना कैसे करोगे यह भी आना चाहिए। इसके बिना श्रावक धर्म का कैसे पालन करोगे। पहले मुनिराज जंगल में निवास करते थे तो श्रावक की भूमिका कम होती थी, लेकिन वर्तमान में धर्मशाला में ठहरते हैं तो श्रावको की भूमिका ज्यादा हो गई। श्रावक धर्म का पहला अक्षर श्रा हैं जिसके अनुसार श्रद्धान मजबूत है तो सिर्फ संयमी के सामने ही सिर झुकेगा इसके अलावा कही भी सिर नहीं झुकेगा। व का अर्थ विवेक है जब विवेक से काम करोगे तब आचरण शुद्ध बनेगा। परम सौभाग्य है कि इस पंचम काल में भी हमें देव, शास्त्र, गुरु का सानिध्य प्राप्त हो रहा है, फिर भी पुण्य से यदि जीवन नहीं भर पाए तो कुछ भी नहीं कर पाए। मानव जीवन में मन अनुकूल रख प्रतिकूलता को दूर हटाना होगा। विवेक पाटोदी ने बताया कि प्रातःकाल मन्दिर जी मे गुरुदेव के सानिध्य में जिनाभिषेक हुए, तत्पश्चात गुरुदेव के मुखारबिंद से शांतिधारा बोली गयी। समाज के रामेश्वर पाटनी व नरेश कालिका ने बताया कि शांतिधारा, पाद प्रक्षालन व शास्त्र भेंट सहित समस्त मांगलिक क्रियाओं का सौभाग्य भागचंद, प्रकाशचंद, सुभाषचंद, पंकज कुमार, सुनील कुमार, सुमित कुमार, वारिस कुमार छाबड़ा दूधवा वाले परिवार को प्राप्त हुआ। धर्म सभा मे सैकड़ो धर्मावलम्बी उपस्थित थे। प्रवचनों के पश्चात समस्त संघ की आहारचर्या हुई, दोपहर को स्वाध्याय व सांयकाल आनंद यात्रा हुई।