शास्त्रसार समुच्चय चूर्णि सूत्राणि के आधार पर काल द्रव्य का विवेचन विषय पर प्रस्तुत किया शोधालेख
गणाचार्य विरागसागर ने लिखें हैं चूर्णि सूत्राणि
विरागोदय महोत्सव में हुई राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी

ललितपुर। गणाचार्य श्री विरागसागर जी महाराज के विशाल संघ सान्निध्य एवं चर्या शिरोमणि आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज के मार्गदर्शन में शताधिक दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों की मंगल सन्निधि में एकलव्य विश्वविद्यालय दमोह के तत्वावधान में विरागोदय महामहोत्सव पथरिया में राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी व विद्वत् सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें देशभर से शताधिक विद्वान शामिल हुए। इस मौके पर राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी में नगर के डॉ सुनील जैन संचय ललितपुर ने ‘ शास्त्र सार समुच्चय चूर्णि सूत्राणि के आधार पर काल द्रव्य का विवेचन’ इस विषय पर अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया। डॉ सुनील संचय ने कहा कि आचार्य माघनंदी की प्रमुख कृति शास्त्र सार समुच्चय पर चूर्णि सूत्रों की रचना संस्कृत भाषा में की है। शास्त्र सार समुच्चय ग्रंथ आचार्य माघ नंदी की अनुपम कृति है इस पर आचार्य श्री विरागसागर जी महाराज ने चूर्णि सूत्र लिखकर महत्वपूर्ण कार्य किया है। आप चार सौ शिष्य-प्रशिष्यों के नायक भी हैं। ग्रंथ में कुल 204 सूत्र हैं जिनपर आचार्य श्री ने तीन हजार से अधिक चूर्णि सूत्र लिखे हैं। उन्होंने विषय की प्रस्तुति करते हुए कहा कि जैनदर्शन में जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये 6 द्रव्य माने गए हैं। जैन दर्शन में काल को स्वतंत्र द्रव्य माना हैं। जो वस्तु मात्र के परिवर्तन में सहायक हैं, उसे काल द्रव्य कहते हैं। यद्यपि परिणमन करने की शक्ति सभी पदार्थों में हैं, किन्तु बाह्म निमित्त के बिना उस शक्ति की व्यक्ति नहीं हो सकती।जैसे कुम्हार के चाक के घूमने की शक्ति मौजूद है, किन्तु कील का सहारा पाये बिना वह घुम नही सकता, वैसे ही संसार के पदार्थ भी काल द्रव्य का सहारा लिये बिना वह घूम नहीं सकता। वैसे ही संसार के पदार्थ भी काल द्रव्य का सहारा लिए बिना परिवर्तन नहीं कर सकते । अत: कालद्रव्य उनके परिवर्तन में सहायक हैं। किन्तु वह भी वस्तुओं को बलात् परिणमन नहीं कराता है, किन्तु परिणमन करते हुए द्रव्यों को सहायक मात्र हो जाता है। साइंस ने जीव आदि में नवीन अवस्था से प्राचीन अवस्था बनने रूप परिवर्तन का माध्यम काल नाम का द्रव्य माना है। जैन दर्शन में काल द्रव्य को परमाणु के आकार का अर्थात एक प्रदेशी मानते हैं। काल द्रव्य को अन्य दार्शनिकों ने भी माना है किंतु उन्होंने व्यवहार काल को ही कालद्रव्य मान लिया है। कालद्रव्य नाम की अणु शक्ति रूप वस्तु को केवल जैनदर्शन ने ही स्वीकार किया है। अपने जीवन को उन्नत बनाने के लिए काल की सामर्थ्य को पहिचान कर सत् की ही प्राप्ति करने का प्रयत्न करें। इस सत्र की अध्यक्षता डॉ. नरेन्द्र जैन गाजियाबाद ने की तथा संचालन ब्रह्मचारी डॉ. अनिल जैन प्राचार्य आचार्य संस्कृत महाविद्यालय जयपुर ने किया। सारस्वत अतिथि प्रोफेसर ऋषभ चंद्र फौजदार दमोह रहे। इस मौके पर संगोष्ठी के निदेशक डॉ. श्रेयांस जैन बड़ौत, संयोजक पंडित विनोद रजवांस, प्रोफेसर फूलचंद्र प्रेमी वाराणसी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी में प्रोफेसर डॉ. अशोक वाराणसी, प्रोफेसर जय कुमार उपाध्ये श्रवणबेलगोला कर्नाटक, प्रोफेसर विजय लखनऊ, डॉ. सुरेन्द्र भारती बुरहानपुर, प्रोफेसर प्रेमसुमन उदयपुर, डॉ ज्योति खतौली, डॉ. आशीष बम्होरी, डॉ. आशीष शास्त्री दमोह , मुकेश शास्त्री आदि शताधिक मनीषी प्रमुख रूप से उपस्थित रहे।