झीलों की नगरी में साढ़े तीन सौ साल से बन रही है जल सांझी

स्थानीय लोगों सहित पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है सांझी कला उदयपुर । पर्यटन और झीलों की नगरी में पानी पर पेटिंग की करीब साढ़े तीन सौ साल पुरानी पुश्तैनी कला जल सांझी कहलाती है। शहर के जगदीश चौक स्थित गोवर्धननाथजी के मंदिर में बरसों से जल सांझी बना रहे राजेश वैष्णव बताते हैं कि भाद्र पद मास शुक्ल पूर्णिमा से कृष्ण अमावस्या यानी पंद्रह दिन तक जल सांझी में कृष्ण लीलाओं का चित्रांकन विशेष रूप से किया जाता है। असल में नवरात्र से पहले कृष्ण को रिझाने या यूं कहें उनके सम्मान के प्रतीक स्वरूप जल सांझी चित्रण किया जाता है। जिनमें गोर्वधन धारण, माखन चोरी, रास लीला आदि प्रमुखता से उकेरी जाएंगी। वे बताते हैं इन पेंटिंग्स को बनाना आसान नहीं है। जल पात्र में पानी को स्थिर रखना होता है। जरा सी भी हवा चले, जल्दबाजी, हड़बड़ी या लापरवाही से पूरी मेहनत बर्बाद हो सकती है।

जल सांझी तैयार करने से पहले मंदिर के सभी दरवाजे, खिड़कियां बंद हो जाते हैं, परदे लगा दिए जाते हैं। इसके बाद बड़े बर्तन में पानी भरकर कोयले और सूखे रंगों की परत बिछाई जाती है। फिर चावल के पतले कागज से बने स्टेंसिल से विभिन्न चित्रकृतियों में बारी बारी छलनी से रंग भरा जाता है। एक जल सांझी तैयार करने में 6 से 10 घंटे लगते हैं। गौरतलब है कि उदयपुर शहर में राजेश पंचोली भी इस पुश्तैनी कला को जीवित रखने में महती भूमिका निभा रहे हैं। इधर, लोक परम्परा एवं सांझी कला को पुनर्जीवित करने के प्रयोजन से जगदीश मन्दिर परिसर में बुधवार को पांच दिवसीय सांझी महोत्सव शुरू हुआ। जिसमें कुमारी कन्याओं सहित बड़ी बूढ़ी औरतों संग बच्चों और पुरुषों ने भी भागीदारी निभाते हुए गोबर व फूलों से सांझी की विभिन्न कलाकृतियां बनाई। बता दें, अंतिम दिन इसमें आकर्षक कोट बनाया जाता है। उसके बाद सांझी को जल में विसर्जन किया जाएगा। इस दौरान सांझी को गेहूं की घूघरी व गुड़ का भोग लगाया जाता है।